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प्रतिष्ठा के मुख्य अधिकारियों का शास्त्रीय स्वरूप ...13 निमित्तज्ञानी हो, एक बार भोजन करने वाला हो, रात्रि भोजन का त्यागी हो, किसी भी प्रकार के संदेह का निवारक हो, एकाग्र चित्त वाला हो, ब्रह्मविद्या का पाठी हो, गुरु सिद्ध मन्त्र से अधिवासित हो, निद्राजित हो, मन्त्र शास्त्र का ज्ञाता हो, कुल क्रम से प्राप्त विद्या को धारण करने वाला हो और उपसर्ग निवारक हो।
उक्त गुणों से सुशोभित आचार्य प्रतिष्ठा कर्म के लिए सुयोग्य कहे गये हैं इससे विपरीत प्रतिष्ठा दोषयुक्त मानी गई है।
आचार्य जयसेनकृत प्रतिष्ठा पाठ में प्रतिष्ठाचार्य के दोषों का वर्णन भी किया गया है। तदनुसार यदि आचार्य शास्त्रज्ञान से रहित, विकथा एवं प्रलापकारी, अत्यन्त लोभी, अशांत स्वभावी, परम्परा ज्ञान से हीन और अर्थ का ज्ञाता नहीं हो तो वह प्रतिष्ठा के लिए अयोग्य है।
प्रतिष्ठासारोद्धार के उल्लेखानुसार प्रतिष्ठाचार्य में निम्न योग्यताएँ
आवश्यक है
देश-जाति-कुलाचारैः, श्रेष्ठो दक्षः सुलक्षणः। त्यागी वाग्मी शुचिः शुद्ध, सम्यक्त्वः सव्रता युवा।। श्रावकाध्ययनज्योति, स्तुिशास्त्र पुराणवित् । निश्चय-व्यवहारज्ञः, प्रतिष्ठावित् प्रभुः।। विनीतः सुभगो मन्द, कषायो विजितेन्द्रियः। जिनेज्यादिक्रियानिष्ठो, भूरिसत्त्वार्थबान्यवः।। दुष्टसृष्टक्रियो वार्तः, सम्पूर्णाङ्ग . परार्थकृत्।
वर्णी गृही वा सवृत्तिरशुद्रो याजको धुराट् ।। जो देश, जाति, कुल और आचार से श्रेष्ठ हो, उत्तम लक्षणों से संयुक्त हो, त्यागी हो, वक्ता हो, शुद्ध सम्यग्दर्शन से युक्त हो, उत्तम व्रतों का पालन करने वाला हो, युवा हो, श्रावकाचार, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराण का वेत्ता हो, निश्चय एवं व्यवहार का ज्ञाता हो, प्रतिष्ठा विधि को जानने वाला हो, विनयशील हो, सुन्दर हो, मन्द कषायी हो, जितेन्द्रिय हो, जिनपूजा आदि में निष्ठावान हो तथा सम्पूर्ण अंगों वाला हो इत्यादि गुणों से जो विभूषित हो वह प्रतिष्ठाचार्य या याजक (यज्ञ कराने वाला) होता है। वह ब्रह्मचारी अथवा गृहस्थ भी हो सकता है। विशेष इतना है कि वह शूद्र नहीं होना चाहिए।