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12... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
प्रभावी, आलस्य वर्जितः, प्रियंवदो, दीनानाथ - वत्सलः सरल स्वभावी वा सर्व गुणान्वितश्चेति । जो आर्य देश में उत्पन्न हुआ हो, लघुकर्मी हो, नैष्ठिकब्रह्मचर्य आदि गुणों से अलंकृत हो, पंचाचार से युक्त हो, राजादि से किसी प्रकार का मन-मुटाव नहीं हो, जिनागमों का तलस्पर्शी अभ्यास किया हुआ हो, तत्त्वज्ञ हो, भूमि-गृह-वस्तु लक्षणों का ज्ञाता हो, दीक्षा विधि में पारंगत हो, सर्वतोभद्रादि मण्डलों का सर्जक हो, अतुल प्रभावी हो, अप्रमत्त एवं सक्रिय हो, प्रियभाषी हो, दीन-दु:खियों के नाथ हो, वात्सल्य भाव से सम्पृक्त हो, स्वभावी अथवा सर्वगुण सम्पन्न हो, वही आचार्य प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हैं। 1
सरल
इन लक्षणों से सम्पन्न आचार्य के मुखारविन्द से किये जाते शुद्ध मन्त्रोच्चार और वरदहस्त से दिया जाता अभिमन्त्रित वासचूर्ण आदि जिनशासन की आराधना, प्रभावना और अविचल धर्मश्रद्धा में प्रबल निमित्त बनते हैं। इसी के साथ प्रतिष्ठा अनुष्ठान सुप्रतिष्ठा के रूप में फलीभूत होता है।
आचार्य जयसेन के अनुसार
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स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता, निरालसो रोगविहिनदेहः । प्रायः प्रकर्त्ता दमदानशीलो, जितेन्द्रियो देवगुरूप्रमाणः ।। शास्त्रार्थसंपत्तिविदीर्णवादो, धर्मोपदेशप्रणयः क्षमावान् । राजादिमान्यो नययोगभाजी, तपोव्रतानुष्ठितपूतदेहः ।। पूर्वं निमित्ताद्यनुमापकोऽर्थ, संदेहहारी यजनैकचित्तः । सद्ब्राह्मणो ब्रह्मविदां पटिष्ठो, जिनैकधर्मा गुरूदत्तमंत्रः ।। भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी, निद्रां विजेतुं विहितोद्यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःख, प्रहाणये सिद्धि मनुर्विधिज्ञः । कुलक्रमा पात सुविद्यया यः, प्राप्तोपसर्गं परिहर्तुमीशः सोऽयं प्रतिष्ठा विधिषु प्रयोक्ता, श्लाघ्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा । । प्रतिष्ठाचार्य स्याद्वाद विद्या में प्रवीण हो, मंत्रोच्चारण के दोषों का ज्ञाता हो, प्रमाद एवं रोग रहित हो, क्रियाओं में कुशल हो, कषायजयी हो, दानशील-तप-भावनादि चतुर्विध धर्म का प्ररूपक हो, जितेन्द्रिय हो, अरिहन्त प्रभु एवं गुरु द्वारा प्रज्ञप्त मार्ग का अनुसरण करने वाला हो, शास्त्रज्ञ हो, उपदेश कुशल हो, क्षमावान हो, राजादि पुरुषों द्वारा सम्मानित और प्रशंसित हो, नय सिद्धान्त का प्रतिपालक हो, तप- व्रत आदि अनुष्ठान से निर्मल शरीर वाला हो,