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अध्याय-2
प्रतिष्ठा के मुख्य अधिकारियों का शास्त्रीय स्वरूप
भाव एवं क्रिया जैन धर्म के दो मुख्य पहलू हैं जिनका महत्व नदी एवं नाव की भाँति रहा हुआ है। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है, परंतु इन दोनों का होना तभी सार्थक होता है जब नाविक श्रेष्ठ हो वरना कभी भी किनारा नहीं मिल सकता। इसी भाँति क्रिया अनुष्ठानों में भी अनुष्ठान कर्ता अधिकारियों का तद्योग्य होना अत्यावश्यक है। अन्यथा वे क्रिया अनुष्ठान कभी भी उत्तम फलप्राप्ति में हेतुभूत नहीं बनते ।
जैन विधिग्रन्थों में इस विषयक पर्याप्त विवेचन किया गया है। प्रतिष्ठा एक विराट अनुष्ठान है जिसका प्रभाव पारिवारिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, स्तर पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है अत: जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा कर्ता आचार्य, स्नात्रकार, श्रावक, शिल्पी आदि समस्त पक्षों का निरूपण किया है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए इस अध्याय में प्रतिष्ठा के मुख्य अधिकारियों का शास्त्रीय स्वरूप बताया जा रहा है।
प्रतिष्ठा करवाने का अधिकारी कौन?
जैन धर्म की श्वेताम्बर - दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रतिष्ठा का अधिकारी आचार्य को माना गया है। कुछ ग्रन्थों में प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण भी निरूपित किये गये हैं जिससे निर्णीत होता है कि अमुक लक्षण युक्त आचार्य ही प्रतिष्ठा के लिए अधिकृत है।
निर्वाणकलिका के अनुसार
सूरिश्चार्य - देश- समुत्पन्नः, क्षीण प्रायः कर्ममलो, ब्रह्मचर्यादि-गुणगणालंकृतः, पञ्चविधाचार - युतो, राजादीनाम-द्रोहकारी, श्रुताध्ययनसम्पन्नस्तत्वज्ञो, भूमि-गृह- वास्तु-लक्षणानां ज्ञाता, दीक्षा- कर्मणि प्रवीणो, निपुणः सूत्रपातादि विज्ञाने, सृष्टा सर्वतोभद्रादि मण्डलानां सर्जकः अतुलः