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8... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा करना, क्षेत्र प्रतिष्ठा है।
यह क्षेत्र प्रतिष्ठा पाँच भरत क्षेत्र और पाँच ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा जाननी चाहिए क्योंकि वहाँ प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं।
3. महा प्रतिष्ठा- भरत, ऐरावत और महाविदेह इन सर्व क्षेत्रों की अपेक्षा एक सौ सत्तर तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान करना महा प्रतिष्ठा
उपर्युक्त त्रिविध प्रतिष्ठा के नाम गुण निष्पन्न, सान्वर्थ, यथार्थ एवं अर्थानुसारी हैं। प्रथम भेद वाली प्रतिष्ठा का विषय एक व्यक्ति है। एक तीर्थंकर व्यक्ति विषयक होने से उसका नाम व्यक्ति प्रतिष्ठा है। दूसरी प्रतिष्ठा का विषय तीर्थंकर योग्य क्षेत्र है। चौबीस तीर्थंकर योग्य क्षेत्र में उत्पन्न होने से उसका नाम क्षेत्र प्रतिष्ठा है। इन दोनों प्रतिष्ठा के विषयी भूत तीर्थंकरों की अपेक्षा तृतीय प्रतिष्ठा का विषय अधिक है इसलिए उसका नाम महाप्रतिष्ठा है।
प्रतिष्ठा के इन त्रिविध भेदों की चर्चा देवभद्रसूरिकृत कथारत्नकोश17 शांतिसूरिकृत चैत्यवन्दनमहाभाष्य18 संबोधप्रकरण धर्मसंग्रह20 श्राद्धविधिटीका21 आदि ग्रन्थों में भी परिलक्षित होती है।
वर्तमान में प्रतिष्ठा के पूर्वोक्त तीनों प्रकार प्रचलित हैं।
शंका- मुक्ति प्राप्त मुख्य देवता विशेष का सान्निध्य प्रतिष्ठा है अथवा मुक्ति प्राप्त सिद्ध भगवान का अनुसरण करने वाले संसारी देवता विशेष का सन्निधान प्रतिष्ठा है?
समाधान- इन दो विकल्पों में से प्रथम विकल्प स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि मुक्त जीवों का मंत्रादि के विशिष्ट संस्कारों से भी पुन: आगमन होना संभव नहीं है। दूसरा विकल्प भी मानने योग्य नहीं है। इसका कारण यह है कि संसार में रहे हुए देवों का मन्त्रादि के विशिष्ट संस्कारों द्वारा नियम से (मूर्ति में) सन्निधान होता ही हो, ऐसा देखा नहीं जाता है। कदाचित संसारी देवता का सन्निधान हो भी जाये तो वह प्रतिष्ठा से संपाद्य नहीं कहलाता यानी संसारी देव आत्मोपलब्धि के निमित्त नहीं बन सकते। अत: यहाँ पूर्व चर्चा के आधार पर प्रतिष्ठाकर्ता का विशिष्ट भाव और परिणाम विशेष ही प्रतिष्ठा है, ऐसा सिद्ध होता है।