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प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास एवं प्रकार ...9 प्रयोजनों की भिन्नता के आधार पर प्रतिष्ठा पाँच प्रकार की होती है। प्रवचनसारोद्धार में उन चैत्यों का निम्न स्वरूप बताया गया है1. भक्ति चैत्य- स्वगृह में त्रिकाल पूजन आदि के लिए प्रतिमा की
स्थापना करना, भक्ति चैत्य है। 2. मंगल चैत्य- गृह द्वार के ऊपर काष्ठ के मध्य भाग में अथवा तोरणद्वार
के ऊपर जिन बिम्ब की स्थापना करना, मंगल चैत्य है। 3. निश्राकृत चैत्य- किसी गच्छ विशेष से सम्बन्धित जिनालय में मूर्ति को
प्रतिष्ठित करना, निश्राकृत चैत्य है। 4. अनिश्राकृत चैत्य- सभी गच्छों से सम्बन्धित जिनालय में मर्ति की
स्थापना करना अनिश्राकृत चैत्य है। 5. शाश्वत चैत्य- नन्दीश्वर आदि शाश्वत जिनालयों में प्रतिष्ठित मूर्ति
शाश्वत चैत्य के रूप में मानी जाती है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों एवं हेतुओं की दृष्टि से जिनबिम्ब की स्थापना पाँच प्रकार से की जाती है।22
यदि जिन बिम्ब के अतिरिक्त क्षेत्रपाल, शासनदेव, परिकर, मुख्यद्वार, स्थापनाचार्य, गुरु भगवन्त आदि अन्य प्रतिमाओं एवं चैत्य के भाग-विभाग आदि की अपेक्षा से कहा जाए तो प्रतिष्ठा अनेक प्रकार की होती है। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. 656 2. प्राकृत हिन्दी कोश, संपा. डॉ. के. आर. चन्द्र, पृ. 490 3. अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. 5, पृ.1 4. वही, भा. 5, पृ. 1 5. सूत्रकृतांगसूत्र, 1/11 की टीका 6. धवला टीका, 13/243 7. निर्वाणकलिका, पृ. 23 8. प्रतिष्ठासारोद्धार, 1/84-85 9. षोडशक प्रकरण, 8/4 10. द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका, 5/18 11. षोडशक प्रकरण, 8/8-9