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प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास एवं प्रकार ...7
प्रतिष्ठा।"
सजीव अथवा निर्जीव पदार्थ विशेष में योग्य अनुष्ठान के द्वारा प्रभाव उत्पन्न करना, उसका नाम प्रतिष्ठा है।14
समाहारतः कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से प्रतिष्ठा को परिभाषित किया है। जिनमें कुछ बाह्य स्वरूप को प्रमुखता देती है तो कुछ में आभ्यन्तर स्वरूप को। प्रतिष्ठा के अन्य अर्थ
षट्खण्डागम में प्रतिष्ठा के निम्न अर्थ बतलाये गये हैंधरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा।15
धरणी, पृथ्वी का अपर नाम हैं। जैसे पृथ्वी स्थिर रहती है वैसे ही प्रतिष्ठा भी मूर्ति को स्थिर रखने के हेतु से की जाती है।
धारणा, मतिज्ञान का अन्तिम चौथा भेद है। धारणात्मक ज्ञान दीर्घ काल तक स्थिर रहता है, वैसे ही प्रतिष्ठा भी दीर्घकालिक स्थैर्यता की द्योतक है।
प्रतिष्ठा संस्कार के द्वारा मूर्ति की स्थापना की जाती है इसलिए इसका दूसरा नाम स्थापना है।
प्रतिष्ठा संस्कार के माध्यम से देव प्रतिमा प्रतिष्ठित हो जाती है अतएव इस अनुष्ठान को प्रतिष्ठा नाम दिया गया है। जैन वांङ्मय में प्रतिष्ठा के प्रकार
आचार्य हरिभद्रसूरि, उपाध्याय यशोविजयजी आदि मुनि पुंगवों ने प्रतिमा की संख्या के आधार पर प्रतिष्ठा के तीन प्रकार बतलाए हैं 1. व्यक्ति प्रतिष्ठा 2. क्षेत्र प्रतिष्ठा और 3. महाप्रतिष्ठा।16 - 1. व्यक्ति प्रतिष्ठा- जिस स्थान विशेष में जो वर्तमान तीर्थंकर हो, जैसे जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में भगवान महावीर का शासन चल रहा हो तो उन्हें वर्तमान तीर्थंकर जानना चाहिए। इस प्रकार अमुक-अमुक स्थानवी वर्तमान तीर्थंकर भगवान की प्रतिष्ठा करना व्यक्ति प्रतिष्ठा है तथा उपलक्षण से शांतिनाथ भगवान आदि एक-एक भगवान की प्रतिष्ठा करना भी व्यक्ति प्रतिष्ठा कहलाती है।
2. क्षेत्र प्रतिष्ठा- अपने-अपने क्षेत्र में होने वाले ऋषभदेव आदि चौबीस