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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... 585
अनिवार्य गिनते थे, परन्तु तेरहवीं शती और उसके बाद के कतिपय सुविहित आचार्यों ने प्रतिष्ठा-विषयक कितनी ही बातों के सम्बन्ध में ऊहापोह किया और त्यागी गुरु को प्रतिष्ठा में कौन-कौन से कार्य करने चाहिए इसका निर्णय कर निम्नानुसार घोषणा की
दिसिबंधों । कप्पे ।।
थुइदाण' मंतनासो; आहवणं तह जिणाणं नित्तुम्मीलण देसण, गुरु अहिगारा इहं
1. स्तुतिदान - देववन्दन पूर्वक स्तुतियाँ बोलना 2. मन्त्रन्यास - प्रतिष्ठाप्य प्रतिमा पर सौभाग्यादि मन्त्रों का न्यास करना 3. जिनेश्वर परमात्मा का प्रतिमा में आह्वान करना 4. मन्त्र द्वारा दिग्बंध करना 5. नेत्रोन्मीलन - प्रतिमा के नेत्रों में सुवर्णशलाका से अंजन करना 6. प्रतिष्ठाफल - प्रतिपादक देशना ( उपदेश) करना। प्रतिष्ठा कल्प में उक्त छह कार्य गुरु को करने चाहिए ।
इनके अतिरिक्त सभी कार्य श्रावक के अधिकार के हैं। यह व्याख्या निश्चित होने के बाद सचित्त पुष्पादि के स्पर्श आदि कार्य त्यागी मुनियों ने छोड़ दिये और गृहस्थों के हाथ से होने शुरू हुए। परन्तु पन्द्रहवीं शती तक इस विषय में दो मत चलते रहे। कोई आचार्य सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श एवं स्वर्ण मुद्रा आदि को धारण करना निर्दोष गिनते थे और कतिपय सुविहित आचार्य उक्त कार्यों को सावद्य जानकर निषेध करते थे। इस वस्तुस्थिति का निर्देश आचारदिनकर में नीचे लिखे अनुसार मिलता है
ततो गुरुर्नवजिनबिम्बस्याग्रतः मध्यमांगुलीद्वयोर्श्वीकरणेन रौद्रदृष्ट्या तर्जनीमुद्रां दर्शयति । ततो वामकरेण जलं गृहीत्वा रौद्रदृष्ट्या बिम्बमाछोटयति । केषांचिन्मते स्नात्रकारा वामहस्तोदकेन प्रतिमामाछोटयन्ति ।
उसके बाद गुरु नूतन जिनप्रतिमा के सामने दोनों मध्यमांगुलियों को खड़ी करके क्रूर दृष्टि से तर्जनी मुद्रा दिखायें और बायें हाथ में जल लेकर रौद्र दृष्टि पूर्वक प्रतिमा पर छिड़कें। कुछ आचार्यों के मत से बिम्ब पर जल छिड़कने का कार्य स्नात्रकार करते हैं। आचार्य वर्धमानसूरि के “केषाञ्चिन्मते' इस वचन से ज्ञात होता है कि उनके समय में अधिकांश आचार्यों ने सचित्त जल आदि - स्पर्श के कार्य छोड़ दिये थे और सचित्त जल, पुष्पादि सम्बन्धी कार्य स्नात्रकार करते थे।" पूज्य गुणरत्नसूरिजी और विशालराज शिष्य ने अपने प्रतिष्ठाकल्पों में दी हुई प्रतिष्ठा सामग्री की सूचियों में कंकण और मुद्रिकाओं की संख्या 4-4 लिखी