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586... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन है तथा साथ में यह भी कहा है कि ये कंकण और मुद्रिकाएँ चार स्नात्रकारों के लिए हैं। उपाध्याय सकलचन्द्रजी ने अपने कल्प में कंकण और मुद्राएँ 5-5 लिखी हैं, इनमें 1-1 इन्द्र के लिए और 4-4 स्नात्रकारों के लिए समझना चाहिए। __आचार्य के द्रव्य पूजाधिकार के विषय में विधिप्रपाकार श्री जिनप्रभसूरिजी लिखते हैं
तदनन्तरमाचार्येण मध्यमांगुलीद्वयोर्वीकरणेन बिम्बस्य तर्जनीमुद्रा रौद्रदृष्ट्या देया। तदनन्तरं वामकरे जलं गृहीत्वा आचार्येण प्रतिमा आछोटनीया। ततश्चन्दनतिलकं पुष्पैः पूजनं च प्रतिमायाः। ___ अर्थात उसके बाद आचार्य को दोनों मध्यमा अंगुलियाँ ऊँची उठाकर प्रतिमा को रौद्र दृष्टि से तर्जनी मुद्रा दिखानी चाहिए। तत्पश्चात बायें हाथ में जल लेकर क्रर दृष्टि से प्रतिमा पर छिड़कें और अन्त में चन्दन का तिलक और पुष्प पूजा करें।
इसी विधिप्रपागत प्रतिष्ठा-पद्धति के आधार पर लिखी गई अन्य खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा-विधि में उपर्युक्त विषय में नीचे लिखा संशोधन दृष्टिगोचर होता है_ पछइ श्रावक डाबइ हाथिइं प्रतिमा पाणीइं छांटइ।।
खरतरगच्छीय प्रतिष्ठाविधिकार का यह संशोधन तपागच्छ के संशोधित प्रतिष्ठा कल्पों का आभारी है। उत्तरवर्ती तपागच्छीय प्रतिष्ठाकल्पों में जलाछोटन एवं चन्दन आदि पूजा श्रावक के हाथ से ही करने का विधान है जिसका अनुसरण उक्त विधि लेखक ने किया है। प्रतिमाओं में कला-प्रवेश क्यों नहीं होता?
पूर्वकालीन अधिकांश प्रतिमाएँ सातिशय होती थीं, पर आजकल की प्रतिमाएँ प्रभावशाली नहीं होती, जबकि पहले की तुलना में विधि-विषयक प्रवृत्तियाँ और बढ़ी हैं। आधुनिक युग में कला का विकास भी हुआ है। पर आज की अधिकांश प्रतिमाओं में लाक्षणिकता नहीं होती और केवल चतुःसूत्र अथवा पंचसूत्र मिलाने से ही प्रतिमा अच्छी नहीं होती है।
3. प्रतिष्ठाचार्य और स्नात्रकार- प्रतिष्ठाचार्यों और स्नात्रकारों में निर्मल श्रद्धा, सदाचार और नि:स्वार्थता की भावना होनी चाहिए। मारवाड़ में तो