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576... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। दूसरे, इस ग्रन्थ को अर्वाचीन सिद्ध कर सकें, ऐसे कई कारण प्रस्तुत ग्रन्थ की विषय वस्तु के आधार पर प्राप्त हो जाते हैं जो निम्नानुसार है1. इस जलयात्रा विधि में 'क्षीरोदधे स्वयंभूश्चा' इत्यादि श्लोक दृष्टिगोचर
होते हैं, जो रत्नशेखरसूरि के समय में तो क्या? वि.सं. 1680 पर्यन्त
लिखी गई किसी जलयात्रा विधि में नहीं है। 2. इस प्रति में वर्णित कुंभस्थापना विधि और बिंब प्रवेश विधियाँ 18 वीं
शती से पूर्व की ज्ञात नहीं होती हैं। 3. इसमें गृह, दिक्पाल और अष्टमंगल के पट्टों पर यक्षकर्दम से आलेखन
करने का सूचन किया गया है। यह विधि-नियम सकलचन्द्र गणि से
पूर्ववर्ती नहीं है। 4. इसमें ग्रहादि पट्टों के उपरान्त 30 छोटे-छोटे पट्टे तैयार करवाने का
उल्लेख किया गया है जो 18वीं शती के पहले किसी भी अष्टोत्तरी स्नात्र
विधि में देखने को नहीं मिलता है। 5. जलयात्रा के दौरान जल निकालते समय अंकुश, मत्स्य एवं कच्छप
मुद्राएँ दिखाने का निर्देश सकल चन्द्रगणि से पूर्ववर्ती नहीं है। 6. इसमें धूप के स्थान पर अगरबत्ती का उल्लेख है जो इस विधि-ग्रन्थ को
अर्वाचीन सिद्ध करता है। 7. मंडप पूजन में घंटाकर्ण के पाठ से सुखड़ी को अभिमंत्रित कर उसके
हिस्से करने का विधान भी इस ग्रन्थ को अर्वाचीन सिद्ध करता है। 8. 'ॐ परमेष्ठी नमस्कारं' इत्यादि स्तोत्र के द्वारा सकलीकरण करने से भी
यह ग्रन्थ नवीन सिद्ध होता है क्योंकि रत्नशेखरसूरि का समय 15वीं शती का उत्तरार्ध तथा 16वीं शती का प्रथम चरण है जबकि प्रस्तुत स्तोत्र
का निर्माण 17वीं शती में हुआ है। 9. इस ग्रन्थ के अन्तर्गत जलयात्राविधि, ग्रह-दिक्पाल पूजन विधि, बिम्ब
प्रवेश विधि आदि 'बिम्बप्रवेशविधि' के संदर्भ का ही अवतरण है
इसलिए यह ग्रन्थ बिम्बप्रवेशविधि से भी अर्वाचीन है। 10. रचनाकार ने बिम्ब प्रवेश विधि में अनावश्यक क्रियानुष्ठानों को जोड़
दिया है, जिसमें कुछ तो केवल यतिधर्म के आडम्बर का ही प्रदर्शन