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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... ...577 करते हैं। निर्वाणकलिका में बिम्ब प्रवेश की लघु विधि दी गई है वह अतिप्राचीन है। तदनुसार बिम्बप्रवेश की विधि करवाई जाये तो अल्पव्यय में कार्य हो सकता है।
अष्टोत्तरी स्नात्र विधि के विषय में भी कुछ बिन्द विमर्शनीय हैं जैसे- यति कान्तिसागरजी ने अष्टोत्तरी स्नात्र-विधि को स्वकृत रचना के रूप में प्रस्तुत किया है।
• यति कांतिसागरजी ने अष्टोत्तरीस्नात्र विधि में सामग्री विषयक निरर्थक बढ़ोतरी की है उसका यथार्थ ज्ञान प्राचीन अष्टोत्तरी का स्वरूप और तत्सम्बन्धी सामग्री की सूची देखने से हो सकता है।
• अष्टोत्तरी की प्राचीन विधि में अष्टाह्निकोत्सव, जलयात्रा, कुंभस्थापना, अष्टमंगलस्थापना, सप्त स्मरण पाठ आदि की जरूरत उपदर्शित नहीं की गई है तथा ग्रहदिक्पालों का पूजन भी संक्षिप्त है।
• इसमें उपकरण सूची अति अल्प और अल्प मूल्य वाली दर्शायी गई है।
• 17वीं शती के पूर्वार्ध में लिखी गई अष्टोत्तरी स्नात्र की प्रति उपलब्ध है किन्तु इससे प्राचीन कोई भी प्रति देखने में नहीं आई है। आचारदिनकर गर्भित प्रतिष्ठाविधि में महापूजा का वर्णन है। इसी भाँति पञ्चामृत महास्नात्र के नाम से प्रसिद्ध पूजाएँ अन्यत्र भी दृष्टिगत होती हैं परन्तु अष्टोत्तरी स्नात्र के नाम से प्रचलित इस पूजा के साथ उन महापूजाओं का कोई सम्बन्ध नहीं है।
• उपलब्ध प्रतिष्ठाकल्पों में अष्टोत्तरी स्नात्र पूजा प्राप्त नहीं होती है। इससे ज्ञात होता है कि अष्टोत्तरी पूजा अति प्राचीन नहीं है। अनुमानत: विक्रम की पन्द्रहवीं अथवा सोलहवीं शती में इसका निर्माण हुआ है और यही वजह है कि 16वीं शती में इस स्नात्र की मौलिकता प्रसरित हो रही थी। . . उस युग में यह स्नात्र पूजा त्यागी साधुओं के द्वारा करवायी जाती थी, अत: सामग्री में अनुचित वृद्धि नहीं हुई, परन्तु कालान्तर में इसमें बहुतसी विकृतियाँ प्रवेश कर गईं जो आज भी यथावत हैं।
• विक्रम संवत् 1639 और 1887 के मध्य 248 वर्षों में सामग्रीगत पदार्थों के परिमाण में अधिक वृद्धि नहीं हुई, केवल अष्टमंगल का पट्टा, 12 अन्य पट्टे, कुछ वस्त्रों और कुछ सामान्य उपकरणों में वृद्धि हुई। प्राचीन विधि के अनुसार पूर्वकाल में अष्टोत्तरी स्नात्र होने के पश्चात जिनबिम्बों का शुद्ध जल