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254... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन विवेक रखते हुए अपने आपको जिन धर्म के अनुष्ठानों से सतत जोड़े रखना चाहिए जिससे भावों की शुद्धता एवं निर्मलता बनी रहे।
माता पिता के द्वारा भव्य जन्मोत्सव- छप्पन दिक्कमारियों के द्वारा सति कर्म एवं देवी-देवताओं के द्वारा स्नात्रोत्सव मनाने के बाद तीर्थङ्कर प्रभु का जन्मोत्सव मध्यलोक में मनाया जाता है। सर्वप्रथम प्रियंवदा दासी द्वारा राजा को पुत्र जन्म की बधाई दी जाती है। राजा भी प्रमुदित मन से उसके सात पीढ़ियों का दारिद्रय दूर हो जाए उतना पारितोषिक देकर उसे संतुष्ट करते हैं। समस्त प्रजाजनों को ऋण से मुक्त कर इच्छित सामग्री प्रदान करते हैं, बंदीजनों को कारागृह से रिहा कर देते हैं। परमात्मा का यह जन्म महोत्सव सम्पूर्ण राज्य में बारह दिन तक आयोजित किया जाता है।
इसी प्रकार का माहौल प्रतिष्ठा-अंजनशलाका के समय जन्म कल्याणक के दिन उपस्थित किया जाता है।
नामकरण- परमात्मा के नामकरण का विशेष महत्व है क्योंकि यही नाम अनेक जीवों के लिए कल्याण का निमित्त बनता है। उत्थान की दृष्टि से परमात्मा के चारों निक्षेप समान रूप से कार्यकारी बनते हैं। भाव निक्षेप के रूप में तो परमात्मा अल्प समय के लिए कुछ जीवों को ही उपलब्ध हो पाते हैं। स्थापना निक्षेप के रूप में परमात्मा दीर्घ समय तक अनेक जीवों के लिए उपकारक होते हैं। नाम निक्षेप की दृष्टि से तीन चौबीसी तक प्रत्येक जीव के लिए कर्म निर्जरा का कारण बनते हैं।
परमात्मा के नामकरण के लिए सुंदर मंडप की रचना की जाती है और उसे उत्तम द्रव्यों से सजाया जाता है। उस समय उपस्थित होने वाले सभी स्वजन, बंधुजन आदि का यथोचित्त बहुमान आदि किया जाता है। ब्राह्मणपुरोहित आदि मंगल वचनों का उच्चारण करते हैं। बुआ उनके लिए विविध वस्त्र, अलंकार, खिलौने आदि लेकर आती हैं। ज्योतिषी जन्म कुंडली के अनुसार आद्य अक्षर बताते हैं। तत्पश्चात माता के गर्भगत अनुभवों के आधार पर उनका नाम रखा जाता है। यही नाम समस्त जगत के लिए पूजनीय, आराध्य एवं कल्याणकारी बनता है।
वर्तमान में पंच कल्याणक महोत्सव के दरम्यान जन्म कल्याणक के अन्तर्गत यह विधि की जाती है। मामा, बुआ, बहन आदि पात्रों के द्वारा तीर्थङ्कर युग की प्रत्यक्ष अनुभूति करवाई जाती है। हम अपने सांसारिक पुत्र-पौत्र,