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पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ...255 भाणजे-भतीजे आदि के नामकरण में प्राय: जाते हैं जो निश्चित रूप से कर्म बंधन का कारण है परन्तु तीर्थङ्कर परमात्मा के नामकरण के भागीदार बनकर कर्म बंधन एवं भव वर्धन को रोक सकते हैं अतएव ऐसे प्रसंगों में एकतान होकर जुड़ना चाहिए।
पाठशाला गमन- तीर्थङ्कर परमात्मा तो जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं। तदुपरान्त माता-पिता अपने दायित्व का निर्वाह तथा सामान्य जन को शिक्षा का महत्व समझाने हेतु आठ वर्ष की आयु में अध्ययन हेतु पाठशाला ले जाते हैं।
जब इन्द्र को यह ज्ञात होता है कि परमात्मा को अध्ययन हेतु ले जाया जा रहा है तब वह परमात्मा की महिमा को सर्वत्र प्रसरित करने के लिए विद्यालय में ब्राह्मण का रूप धारण कर उपस्थित होते हैं। वहाँ परमात्मा के द्वारा किए गए प्रश्नों के आधार पर जैनेन्द्र व्याकरण की रचना होती है और परिवारजन परमात्मा को पुन: घर ले जाते हैं।
जन्म कल्याणक एवं दीक्षा कल्याणक की मध्यवर्ती घटनाओं को पंच कल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत उस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, जिससे सामान्य जन को उनके जीवन से प्रतिबोध प्राप्त हो सके।
परमात्मा का लग्नोत्सव- अनंत उपकारी तीर्थङ्कर परमात्मा के जीवन की प्रत्येक घटना के मर्म को समझा जाए तो हर व्यक्ति अपने जीवन में अनेक आदर्श स्थापित कर सकता है। विवाह या शादी का नाम लेते ही हमारे समक्ष भोगमय जीवन का चित्र उभरने लगता है। जो परमात्मा योग में रमने वाले हैं वे भोगमय जीवन का स्वीकार क्यों करते हैं? उसे स्वीकार करते समय उनकी मनःस्थिति क्या होती है? किसी कवि ने अरिहंत प्रभु की उस मनोदशा को उजागर करते हुए कहा है
मैथुन परिषह थी रहित जे, नंदता निजभावमां ने भोगकर्म निवारवा विवाह कंकण धारतां। ने ब्रह्मचर्य तणो जगाव्यो, नाद जेणे विश्वमां
ऐवा प्रभु अरिहंत ने, पंचांग भावे हुँ नमुं।। अरिहंत परमात्मा यदि विवाह करते भी हैं तो मात्र भोगावली कर्मों को क्षीण करने के लिए। अत: उनकी इस क्रिया में कर्म बंधन नहीं, कर्म क्षय ही होता है। परमात्मा कभी भी स्वेच्छा से लग्न बंधन में नहीं बंधते और न ही उनमें