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जिन प्रतिमा- प्रकरण ...201
इस सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि जो प्रतिमा प्राचीन हो, अतिशय से सम्पन्न हो, उसकी अंगुली का अग्रभाग, कान या नाक का भाग खण्डित हो जाने पर भी पूज्य हैं किन्तु मस्तक आदि से खण्डित प्रतिमा सर्वथा अपूज्य है, उसे मन्दिर में नहीं रखकर अगाध जल राशि में विधि पूर्वक विसर्जित करना चाहिए। 48
आलंबन का साधक के मनो-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव होता है। हमारे सामने जैसा आलंबन आदर्श रूप में होता है वैसा ही हमारा जीवन बनता है। इसी हेतु को ध्यान में रखकर जिन प्रतिमा का निर्माण करवाया जाता है। अरिहंत परमात्मा की प्रशांत वीतराग मुद्रा ही साधक के मन को स्थिर एवं उपशांत कर देती है। परंतु कई ऐसे पक्ष भी है जिनके कारण प्रतिमा का प्रभाव शुभ से अशुभ में परिवर्तित हो जाता है। हीनांग या खंडित प्रतिमा इसी का उदाहरण है। इन्हीं सब पक्षों के अध्ययन में यह अध्याय आधारभूत बनते हुए जिन प्रतिमा सम्बन्धी सूक्ष्म तथ्यों का ज्ञान करवाएं यही शुभाशंसा।
सन्दर्भ - सूची
1. नैक हस्तादितोऽन्यूने, प्रासादे स्थिरता नयेत् ।
स्थिरं ना स्थापयेद् गेहे, गृहीणां दुख कृद्धियत् ॥
2. प्रासाद मंडन, 4/4
3. आचार दिनकर, पृ. 143
4. प्रासाद मंडन, 4/1
5. वही, 4/2
शिल्प स्मृति, 6 / 130
6. (क) वास्तुसार प्रकरण, 3/44
(ख) प्रासाद मंडन, 4/5
7. वसुनन्दि प्रतिष्ठासार, उद्धृत- वास्तुसार, पृ. 124
8. वास्तुसार प्रकरण, 3/39
9. वास्तुसार प्रकरण, 3/45-46
10. वास्तुमंजरी, वास्तुराज, उद्धृत- देवशिल्प, पृ. 230
11. शिल्प रत्नाकर, 4/138-156
12. वही, 12/205