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जिन प्रतिमा-प्रकरण ...189
तृतीय मत- शिल्प रत्नाकर के अनुसार गर्भ गृह के पृष्ठ भाग की दीवार से मध्य बिन्दु तक अट्ठाईस भाग करें। फिर मध्य बिन्दु से प्रारम्भ कर दूसरे भाग में शालिग्राम और ब्रह्मा, तीसरे भाग में नकुलीश, चौथे भाग में सावित्री, पाँचवें भाग में रुद्र एवं अर्धनारीश्वर, छठे भाग में कार्तिकेय, सातवें भाग में ब्रह्मा, सावित्री, सरस्वती एवं हिरण्यगर्भ, आठवें भाग में दशावतार, उमा, शिव, शेषशायी, नौवें भाग में मत्स्य, वराह, पद्मासन एवं ऊर्ध्वासन विष्णु, दसवें भाग में विश्वरूप, उमा एवं लक्ष्मी, ग्यारहवें भाग में अग्नि, बारहवें भाग में सूर्य, तेरहवें भाग में दुर्गा एवं लक्ष्मी, चौदहवें भाग में गणेश, लक्ष्मी, वीतराग देव, पन्द्रहवें भाग में गृह, सोलहवें भाग में मातृका, लक्ष्मी, देवियाँ, सत्रहवें भाग में गणदेव, अठारहवें भाग में भैरव, उन्नीसवें भाग में क्षेत्रपाल, बीसवें भाग में यक्षराज, इक्कीसवें भाग में हनुमान, बाईसवें भाग में मृगघोर, तेईसवें भाग में
अघोर, चौबीसवें भाग में दैत्य, पच्चीसवें भाग में राक्षस, छब्बीसवें भाग में पिशाच तथा सत्ताईसवें भाग में भूत की मूर्ति स्थापित कर सकते हैं। पहले और अट्ठाईसवें भाग में किसी भी मूर्ति को स्थापित नहीं करना चाहिए।11
शिल्प रत्नाकर के आधार पर स्पष्ट होता है कि स्थापित प्रतिमा दीवार से संलग्न नहीं होनी चाहिए। इसे अशुभ माना गया है। इसी तरह दीवार स्थित अलमारी या आले में प्रतिमा की स्थापना करना भी अशुभ है। इसी प्रकार दो स्तम्भों के पाटे के नीचे, बीम आदि के नीचे भी जिनबिम्ब स्थापित नहीं करना चाहिए।12 शिल्पज्ञों के मत से गर्भ गृहं के छ: भागकर दीवार के समीप का एक भाग छोड़कर पाँचवें भाग अथवा गर्भ गृह के आठ भागकर पीछे का एक भाग छोड़कर सातवें भाग में जिनेन्द्र देव को स्थापित करना चाहिए।13। . कुछ आचार्यों के मतानुसार गर्भगृह के चार भाग करें, उसमें दीवार से प्रथम भाग राक्षस का, द्वितीय भाग ब्रह्म का, तृतीय भाग देव का एवं चतुर्थ भाग मनुष्य का माना गया है। इस नियमानुसार दो भाग छोड़कर देव के स्थान में जिनबिम्ब स्थापित करना चाहिए।14
शिल्प शास्त्रों के निर्देशानुसार यह भी ध्यातव्य है कि देवालय के पीछे की दीवार में सुई की नोक के बराबर भी छिद्र नहीं रखना चाहिए क्योंकि उसमें असुर देवों का निवास हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध है कि वेदी के पीछे कोई अलमारी, रोशनदान आदि नहीं बनाना चाहिए।15