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जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...145 2. कमलाकृति वेदी- इसे पद्मिनी वेदी भी कहते हैं। इस वेदी का निर्माण
करते समय खिले हुए कमल की आकृति बनाई जाती है और उस पर प्रतिमा की स्थापना करते हैं। इस वेदी का प्रयोग तीर्थंकर प्रभु के
केवलज्ञान कल्याणक के समय किया जाता है। 3. अर्धचन्द्राकृति वेदी- इस वेदी में अर्धचन्द्र का आकार दिया जाता है
जिसका समतल भाग ऊपर रहता है। यह वेदी तीर्थंकर के जन्म
कल्याणक के समय उपयोग की जाती है। 4. अष्टकोण वेदी- इसे सर्वतोभद्र वेदी भी कहा जाता है। इसमें अष्ट कोण
की आकृति बनाई जाती है। इस वेदी का प्रयोग विशेष रूप से तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक के समय किया जाता है।59
गर्भगृह की वेदी एक या डेढ़ हाथ ऊँची होनी चाहिए। वेदी निर्माण करते समय ध्यान रखने योग्य निर्देश1. वेदी ठोस बनायें, जरा भी पोली न बनायें। 2. वेदी में एक या तीन कटनियों का ही निर्माण करें। 3. मूलनायक प्रतिमा वेदी के ठीक मध्य में स्थापित करें। 4. वेदी दीवार से चिपकाकर न बनाएं। 5. मूलनायक प्रतिमा परिकर सहित स्थापित करें। 6. परिक्रमा के लिए उपयुक्त स्थान रखें। 7. प्रतिमा स्थापन के लिए समचतुरस्र वेदी ही बनायें। 8. प्रतिमाओं की संख्या के अनुसार प्रमाणोपेत वेदी बनायें। प्रासाद
यहाँ प्रासाद शब्द का अभिप्राय उसकी मूल रचना कृतियों से है। मन्दिर के बाह्य और आभ्यन्तर भाग में जितनी भी आवश्यक संरचनाएँ बनाई जाती है उन सभी को प्रासाद की संज्ञा दी गई है। मन्दिर का आवश्यक भाग-उपविभाग भी प्रासाद कहलाता है।
शिल्प ग्रन्थों के अनुसार जिनालय की रचना आकृतियों में होती है अत: इसके अनेक प्रकार हैं।
प्रथम विभाग- प्रासाद मंडनकार ने शिखर एवं भद्र आदि की अपेक्षा से पच्चीस प्रकार के प्रासाद बतलाये हैं। ये प्रासाद नागर जाति के हैं और उनके