________________
98... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन फल यह है कि अधिक धन देने से जिन शासन की प्रशंसा होती है। इससे कुछ लोग जैन धर्म के प्रति आकर्षित होकर बोधि बीज को प्राप्त करते हैं और लघुकर्मी मजदूर भी प्रतिबोध को प्राप्त करते हैं।26 ___जिनालय का निर्माण विधिपूर्वक हो, इस प्रयोजन से आचार्य हरिभद्रसूरि इस द्वार के अन्तर्गत यह भी कहते हैं कि मन्दिर का कार्य करने वाले कारीगर, सुथार, सोमपुरा आदि के साथ मधुर और उचित व्यवहार रखना चाहिए। यदि अच्छा व्यवहार न हों तो वे अधुरा काम छोड़कर भी जा सकते हैं। ___षोडशक प्रकरण में यह भी कहा गया है कि जिनालय के कारीगर धर्म मित्र हैं। जैसे कल्पसूत्र में राजसेवकों के लिए 'भृत्य' शब्द का प्रयोग न करके 'कौटुम्बिक पुरुष' शब्द का उपयोग किया गया है उसी प्रकार यहाँ जिन मन्दिर के सोमपुरा, कारीगर आदि को 'धर्म मित्र' के विशेषण से सम्मानित किया गया है।27
इस वर्णन का तात्पर्य है कि कारीगरों आदि के साथ मधुर बर्ताव करना चाहिए और श्रम से अधिक मूल्य चुकाना चाहिए, इससे निर्माण कार्य मन मुताबिक होता है। 4. स्वाशयवृद्धि द्वार
जिनभवन का निर्माण करवाते समय निरन्तर शुभ परिणाम बढ़ते रहने चाहिए। यहाँ स्वाशयवृद्धि का अर्थ है- स्वयं के शुभ परिणामों में वृद्धि करना। आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि जिनालय के निर्माण काल में जिनेश्वर परमात्मा के गुणों का यथार्थ ज्ञान होने से एवं जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के लिए की गयी प्रवृत्ति से शुभ परिणाम की वृद्धि अवश्य होती है।
प्रभु भक्ति के उद्देश्य से एवं निदान आदि के भाव से रहित होकर मन्दिर निर्माण करवाने से भी शुभ अध्यवसायों की अभिवृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त मुझे जिनमन्दिर में वन्दन-दर्शन के लिए आने वाले साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध संघ को देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा।28
जिनमन्दिर में वीतराग प्रतिमा को देखकर दूसरे भव्य जीव प्रतिबोध को प्राप्त करेंगे और श्रेष्ठ धर्म का अनुसरण करेंगे। इसलिए जो धन निर्माण कार्य में लगाया जा रहा है वही सच्चा धन है, उसके अतिरिक्त सब कुछ नकली और पराया धन है- इस प्रकार के सतत शुभ विचारों से भी शुभ परिणामों की वृद्धि होती है और उससे मोक्ष रूपी फल मिलता है।29