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जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...99
5. यतना द्वार ___यतना का अभिप्राय विवेक एवं जागरूकता है। जिनालय के निर्माण हेतु भूमि खोदना, काष्ठ एकत्रित करना, ईंट आदि खरीदना इन सभी कार्यों में जीव हिंसा न हो इसके लिए सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि तीर्थंकर पुरुषों ने जीव रक्षा में विवेक रखने को ही धर्म का सार कहा है।30 ___यतना धर्म की माता है, यतना ही धर्म का पालन करवाती है, यतना धर्म की वृद्धि करती है और यतना सर्वथा सुखकारिणी है।
जिनेश्वर देवों ने यतना पूर्वक कार्य करने वाले जीव को श्रद्धा, बोध और आसेवन के भाव से क्रमश: सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र का आराधक कहा है। ___आचार्य हरिभद्रसूरि यतना धर्म की श्रेष्ठता बतलाते हुए यह भी कहते हैं कि यद्यपि यतना पूर्वक प्रवृत्ति में थोड़ी आरम्भ आदि हिंसा होने से वह अल्प दोष युक्त है फिर भी इससे नियमत: बड़े-बड़े दोष दूर हो जाते हैं इसलिए यतना को निवृत्ति प्रधान जानना चाहिए। जैसे कि भगवान आदिनाथ ने शिल्पकला, राजनीति आदि का जो उपदेश दिया, वह थोड़ी दोषयुक्त प्रवृत्ति होने पर भी निर्दोष है क्योंकि उससे जन सामान्य की अनेक समस्याएँ दूर हो गई। इसी प्रकार सर्प आदि हिंसक जन्तुओं से रक्षा करने के लिए माता के द्वारा बालक को खींचना पीड़ा युक्त होने पर भी वहाँ माता का आशय शुभ ही माना गया है।32
इस प्रकार भूमि शुद्धि आदि में विधि पूर्वक सावधानी रखने पर जिनमन्दिर-निर्माण सम्बन्धी प्रवृत्ति में जीव हिंसा होने पर भी वह अधिक आरम्भजन्य क्रियाओं की निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है। इसी प्रकार जिन पूजा, जिन महोत्सव आदि प्रवृत्ति भी अधिक जीव हिंसा से निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है।33 जिनालय निर्माणगत हिंसा निर्दोष कैसे? ___कोई शंका करते हैं कि पृथ्वी आदि जीवों को पीड़ा पहुँचाये बिना जिनालय का निर्माण संभव नहीं है और पृथ्वी आदि को कष्ट पहुँचाना नियम से हिंसा है तब जिनमन्दिर निर्माण से धर्मवृद्धि किस प्रकार हो सकती है?
इसका समाधान करते हुए आचार्य भगवन्त कहते हैं कि राग-द्वेष से रहित एवं शास्त्राज्ञा मुताबिक प्रयत्न करना यतना है इसलिए मन्दिर निर्माण में हिंसा