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पूर्व-अ
जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...95 तत्पश्चात 'ॐ ह्रीँ कुष्माण्डिनी कौमारी मम हृदये ही कथय कथय स्वाहा'- इस मन्त्र का 21 बार जाप करके कोष्ठक को मन्त्रित करें- करवायें। फिर प्रश्नकर्ता से प्रश्न लिखवायें। वह जिस अक्षर से प्रश्न आरम्भ करें वहाँ यथाशक्य निर्दिष्ट शल्य होता है। ईशान-श
आग्नेय-क उत्तर-य मध्य ह-प-य
दक्षिण-च वायव्य-प पश्चिम-त
नैऋत्य-ट प्रश्नकर्ता के प्रथमाक्षर के अनुसार शल्य ज्ञान एवं उसका फल प्रश्नकर्ता के प्रथमाक्षर एवं दिशा | शल्य स्थिति फल | पूर्व दिशा में डेढ़ हाथ नीचे | मनुष्य की हड्डी | व्यक्ति की
मृत्यु | आग्नेय में दो हाथ नीचे | गधे की हड्डी । राजभय दक्षिण में कमर भर नीचे मनुष्य की हड्डी स्वामी मृत्यु नैऋत्य में डेढ़ हाथ नीचे । कुत्ते की हड्डी गर्भ पतन पश्चिम में डेढ़ हाथ नीचे सियार की हड्डी | परदेश वास वायव्य में चार हाथ नीचे । मनुष्य की हड्डी मित्रनाश उत्तर में साढ़े चार हाथ नीचे| गधे की हड्डी | पशु हानि
| ईशान में डेढ़ हाथ नीचे । | गाय की हड्डी गोधन हानि ह-प-य | मध्य में हृदय जितनी केश, कपाल मृत्यु गहराई में
मुर्दा, भस्म, लोह | शल्योद्धार करने हेतु उपर्युक्त प्रक्रिया करने के उपरान्त भी अनेकों बार हड्डी नहीं निकलती है। ऐसी परिस्थिति में अपेक्षित स्थान को सावधानी से गहराई तक खोद लेना उपयुक्त है क्योंकि दीर्घ काल के पश्चात वहाँ से जानवरों द्वारा भी हड्डी आदि निकाली जा सकती है। इस प्रकार शल्य शोधन करने के बाद ही निर्माण का कार्य प्रारंभ करना चाहिए, नहीं तो अनिष्टकारक घटनाएँ घटित हो सकती है।18
आचार्य हरिभद्रसूरि रचित पंचाशक प्रकरण में कहा गया है कि जिन मन्दिर की भूमि में काँटें, हड्डियाँ आदि अशुभ वस्तु रूप शल्य हों तो उससे
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