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जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...65
इतना अधिक पुण्य मिलता है कि वह चिरकाल तक देवलोक में सुख भोगता है। प्रासादमंडन में यह भी कहा गया है कि सुश्रावक को स्वशक्ति के अनुरूप लकड़ी, ईंट, पाषाण, स्वर्ण आदि धातु एवं रत्नादि के जिनालय का निर्माण अवश्य करवाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।
प्रासाद मंडन के अनुसार वीतराग प्रतिमाओं की स्थापना, पूजा एवं दर्शन करने से मनुष्य के पापों का क्षय होता है तथा उसको धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यदि कोई घास का देवालय बनवाता है तो वह भी कोटि गुणा पुण्य का अर्जन करता है। इसी भाँति मिट्टी का देवालय बनाने वाला उससे दस गुणा अधिक पुण्य कमाता है, ईंट का देवालय बनाने वाला उससे भी सौ गुणा पुण्य अर्जन कर अपना जीवन सुखी करता है, पाषाण का जिनालय निर्मित करवाने वाला उपासक अनन्त गुणा पुण्य फल प्राप्त करता है | 4
अतएव शाश्वत सुख की इच्छा रखने वाले गृहस्थ को चाहिए कि वह अपने जीवन काल में स्वशक्ति के अनुरूप जिनेश्वर परमात्मा का मन्दिर निश्चित बनवाये। इस सृष्टि में जिनालय एक ऐसा माध्यम है जो भव्यजनों के लिए अनेक पीढ़ियों तक कर्म निर्जरा का निमित्त बनता है। यह प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों दृष्टियों से आराधकों के लिए उपकारी है। जैनेतर ग्रन्थों में भी मन्दिर निर्माण कर्ता के लिए असीम पुण्य फल प्राप्ति का वर्णन किया गया है।
उमास्वामी श्रावकाचार में जिनमन्दिर एवं जिन प्रतिमा निर्माण का फल बतलाते हुए उल्लिखित किया है कि
अंगुष्ठ मात्रं बिम्बं यत्, यः कृत्वा नित्यमर्चयेत् । तत्फलं न च वस्तुं हि शक्यते 5 संख्यपुण्ययुक् ।। बिम्बादल समे चैत्ये, यवमानं तु बिम्बकम् । यः करोति तस्येन, मुक्ति र्भवति सन्निधिः । । जो भव्य प्राणी एक अंगुल प्रमाण की प्रतिमा भी निर्मित करवाकर उसकी नित्य पूजा करता है उसके पुण्य संचय को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है। जो पुरुष बिम्बाफल ( भिलावा - एक छोटा लाल फल) के पत्ते के समान अत्यन्त लघु चैत्यालय बनवाता है तथा उसमें जौ के आकार की प्रतिमा स्थापित कर उसकी नित्य पूजा करता है वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है | S