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66... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
आचार्य जयसेन के प्रतिष्ठापाठ में कहा गया है कि जो श्रावक माया, मिथ्यात्व, निदान और ख्याति की कामना से रहित होकर जिनबिम्ब की स्थापना करते हैं वे पुण्य एवं यश की वृद्धि करते हुए मोक्ष मार्ग की विशेष प्रभावना करते हैं तथा इस लोक में जब तक सूर्य-चन्द्र हैं तब तक भव्य जीवों के लिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में निमित्त बनते हैं। जैसे दीवार के अनुसार चित्र अंकित होता है वैसे ही जिनबिम्ब के दर्शन से आत्म परिणाम निर्मल बनते हैं।
इसी क्रम में आचार्य जयसेन यह भी कहते हैं कि जो भव्य आत्मा बदरी (बोर) के बराबर जिनालय और धनिये के बीज के बराबर भी जिनबिम्ब स्थापित करते हैं वे पूर्व संचित अनन्त भवों के पापों को क्षीण कर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं। उन्होंने गृहस्थ द्वारा न्यायोपार्जित उस संपत्ति को श्रेष्ठ कहा है जो 1.जिनमन्दिर निर्माण 2. प्रतिष्ठा 3. जीर्णोद्धार 4.जिनबिम्ब स्थापना 5. तीर्थयात्रा 6. चारों दान और 7. जिन पूजा- इन सात कार्यों में उपयोगी बनती है।
उपाध्याय समयसुंदरजी ने सिद्धाचल तीर्थ पर नवीन चैत्य बनवाने एवं जीर्णोद्धार करवाने का सुफल दिखलाते हुए कहा है
श्री शत्रुजय ऊपरे, चैत्य करावे जेह । दल परिणाम समुं लहे, पल्योपम सुख तेह ।। शत्रुज ऊपर देहरूँ, नवं नीपावे कोय ।
जीर्णोद्धार करावतां, आठ गणुं फल होय ।। प्रस्तुत सन्दर्भ में शंका उठती है कि रत्न, स्वर्ण आदि उच्च कोटि की जिन प्रतिमा बनवाने में विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है अथवा उत्कृष्ट परिणाम से?
इस जिज्ञासा को शान्त करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि षोडशक प्रकरण में कहते हैं कि जिन प्रतिमा प्रमाण से अधिक हो, विशिष्ट अंग-अवयवों की रचना सुंदर हो और स्वर्ण-रत्नादि श्रेष्ठ धातुओं से निर्मित हो, इन बाह्य विशेषताओं से विशिष्ट फल नहीं मिलता है, परन्तु आशय विशेष से विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य है कि जहाँ भावों की अधिकता होती है वहीं अधिक फल मिलता है। इसके उपरान्त अतिशय प्रधान भावों की अभिवृद्धि हेतु वस्तुगत बाह्य विशेषता भी आवश्यक है। जैसा कि व्यवहार भाष्य में कहा गया है लक्षणयुक्त अलंकारों से सुसज्जित प्रसन्न मुख मुद्रा वाली प्रतिमा जितनी मात्रा में मन को आनन्दित करती है उतनी निर्जरा जाननी चाहिए।