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प्रतिष्ठा सम्बन्धी आवश्यक पक्षों का मूल्यपरक विश्लेषण ...41 में लिखा गया है कि
वासुकिनिर्मोकलघुनी, प्रत्यप्रवाससी दधानः करांगुली विन्यस्तकाञ्चनमुद्रिकः प्रकोष्ठदेशनियोजितकनककंकणः, तपसा विशुद्धदेही वेदीकायामुदङ्मुखमुपविश्य।।
अर्थात बहुत महीन श्वेत और मूल्यवान दो नये वस्त्र धारण किये हुए, हस्तांगुली में सुवर्ण मुद्रिका और मणिबन्ध में सुवर्ण का कंकण धारण किये हुए, उपवास से विशुद्ध देह वाले प्रतिष्ठाचार्य वेदिका पर उत्तराभिमुख बैठकर।10
आचार्य पादलिप्तसूरि के उक्त शब्दों का अनुसरण करते हुए श्रीचन्द्रसूरि, जिनप्रभसूरि, वर्धमानसूरि ने भी अपने प्रतिष्ठा कल्पों में 'ततः सूरिः कंकणमुद्रिकाहस्तः सदशवस्त्र परिधानः' इस वाक्य पद से प्रतिष्ठाचार्य की वेश भूषा का संकेत किया है। ___यहाँ प्रश्न होता है कि जैन आचार्य निर्ग्रन्थ साधुओं में मुख्य माने जाते हैं उनके लिए सुवर्ण मुद्रिका और सुवर्ण कंकण धारण करना कहाँ तक उचित है? सुवर्ण-मुद्रा एवं कंकण पहने बिना अंजनशलाका नहीं हो सकती?
इसका समाधान यह है कि प्रतिष्ठाचार्य के लिए मुद्रा-कंकण धारण करना अनिवार्य नहीं है। आचार्य पादलिप्तसूरि ने जिन मूल गाथाओं को अपनी प्रतिष्ठा-पद्धति का मूलाधार माना है और अनेक स्थानों पर 'यदागमः' इत्यादि शब्द के उल्लेख द्वारा जिसका आदर किया है उस मूल प्रतिष्ठागम में सुवर्ण मुद्रा अथवा सुवर्ण कंकण धारण करने का संकेत तक नहीं है। आचार्य पादलिप्तसरि ने जिस मुद्रा कंकण एवं परिधान का उल्लेख किया है वह तत्कालीन चैत्यवासियों की प्रवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। आचार्य पादलिप्तसूरिजी चैत्यवासी थे या नहीं? यह तो ज्ञात नहीं है परन्तु इन्होंने आचार्याऽभिषेक विधि में और प्रतिष्ठा विधि में जो कतिपय बातें लिखी हैं वे चैत्यवासियों की पौषध शालाओं में रहने वाले शिथिलाचारी साधुओं की हैं, इसमें शंका नहीं है। जैन सिद्धान्त के साथ इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं है।
आचार्याऽभिषेक के प्रसंग में इन्होंने भावी आचार्य के लिए तेल मर्दन एवं सधवा स्त्रियों द्वारा वर्णक (पीठी) करवाने तक का विधान किया है। यह सब पढ़कर यही लगता है कि श्री पादलिप्तसूरि स्वयं चैत्यवासी होने चाहिए। कदापि ऐसा मानने में कोई आपत्ति हो तो न भी मानें, फिर भी यह निर्विवाद तथ्य है