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42... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन कि आचार्य पादलिप्तसूरि के समय चैत्यवासियों का प्राबल्य था। इससे इनकी प्रतिष्ठा पद्धति आदि कृतियों पर भी चैत्यवासियों का प्रभाव परिलक्षित होता है। साधु द्वारा सचित्त जल, पुष्पादि द्रव्यों से जिन पूजा आदि करने का विधान जैसे चैत्यवासियों की आचरणा है वैसे ही सुवर्ण मुद्रा, कंकणधारण आदि चैत्यवासियों का लक्षण है, सुविहितों का नहीं।
गणि कल्याणविजयजी के मतानुसार श्रीचन्द्रसूरि, आचार्य जिनप्रभसूरि, आचार्य वर्धमानसूरि स्वयं चैत्यवासी नहीं थे किन्तु उनके साम्राज्य काल में अवश्य विद्यमान थे। इसीलिए श्रीचन्द्रसूरि आदि ने प्रतिष्ठाचार्य के लिए मुद्रा एवं कंकण धारण करने का उल्लेख किया है। दूसरा, प्रतिष्ठा-विधि जैसे विषयों में तो पूर्व ग्रन्थों का सहारा लिये बिना चल भी नहीं सकता है। इस विषय में आचारदिनकर ग्रन्थ स्वयं साक्षी है। इसमें जो कुछ संगृहीत है वह सब चैत्यवासियों और दिगम्बर भट्टारकों का है।11 प्रतिष्ठा संस्कार किन-किनका किया जाए?
यहाँ प्रश्न होता है कि जिनबिम्ब, क्षेत्रपाल, कलश, ध्वजा आदि की प्रतिष्ठा तो जन सामान्य में प्रसिद्ध है फिर भी जैन मत से किन-किन पदार्थों की प्रतिष्ठा की जा सकती है। आचार दिनकर के अनुसार निम्नोक्त देव-देवियों एवं स्थान विशेषों की प्रतिष्ठा की जानी चाहिए। उनके नाम इस प्रकार हैं1. जिनबिम्ब 2. चैत्य (जिनालय) 3. कलश 4. ध्वजा 5. बिम्ब परिकर 6. देवी 7. क्षेत्रपाल 8. गणेश आदि देव 9. सिद्ध मूर्ति 10. समवशरण 11. मन्त्र पट्ट 12. पितृ मूर्ति 13. आचार्य या मुनि की मूर्ति 14. नवग्रह मूर्ति 15. चतुर्निकाय देव 16. गृह (मकान) 17. कुँआ आदि जलाशय 18. वृक्ष 19. अट्टालिका आदि राज भवन 20. दुर्ग और 21 भूमि आदि। ___आचार्य वर्धमानसूरि ने जिन वस्तुओं की प्रतिष्ठा करना आवश्यक माना है उनके नाम निर्देश से ऐसा ज्ञात होता है कि विक्रम की 16वीं शती के समय उन सभी की प्रतिष्ठा की जाती होगी इसीलिए उनकी विधियाँ भी उल्लेखित की गई हैं परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो आज इनमें से कुछ प्रतिष्ठाएँ व्युच्छिन्न हो गई हैं। जैसे कई जगह पितृ मूर्ति की स्थापना तो होती है लेकिन उसका प्रतिष्ठा संस्कार किया जाता हो, ऐसा देखने में नहीं आया है। नव निर्मित मकान आदि की वास्तु पूजा, स्नात्र पूजा आदि के द्वारा शुद्धि तो करते