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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...37 भगवान महावीर के शासन में साधु और गृहस्थ को पापों की शुद्धि एवं गुणों की वृद्धि के लिए उभय सन्ध्याओं में अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार भारी बोझ उठाया हुआ मजदूर भार उतारने के पश्चात हल्केपन का अनुभव करता है वैसे ही प्रतिक्रमण के द्वारा पाप भार उतर गया है, ऐसा अनुभव होता है। षडावश्यक में प्रतिक्रमण का महत्त्व सर्वाधिक क्यों?
समस्त श्रुतज्ञान का सार चारित्र है और चारित्र का फल मोक्ष है। यदि ज्ञान चारित्र की साधना में प्रेरक कारण न बने तो वह अज्ञान है, प्रकाश नहीं अंधकार है। यदि चारित्र ग्रहण के पीछे मोक्ष का लक्ष्य नहीं हो तो वह केवल कायकष्ट रूप है। इस दृष्टि को लक्षित करते हुए ज्ञान और क्रिया का समन्वय साधना चाहिए। ‘ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' सूत्र के समान 'पढमं नाणं तओ दया' यह सूत्र भी पूर्व मत को पुष्ट करता है। दया चारित्र रूप है इसे जीवन का आदर्श मानते हुए तद्हेतु ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। दयाधर्म के पालनार्थ जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
जिस प्रकार चारित्र के बिना मोक्ष नहीं, उसी प्रकार प्रमाद युक्त चारित्र से भी मोक्ष नहीं होता। प्रमाद को दूर करने एवं चारित्र को शुद्ध बनाने के लिए बार-बार प्रतिक्रमण करना चाहिए। इसके उपरान्त जब तक प्रमाद है तब तक प्रतिक्रमण अत्यन्त जरूरी है। ज्ञानी और संयमी साधकों को भी प्रमाद होता है। उसे निर्गमित करने का एक मात्र साधन प्रतिक्रमण है अतएव जिनशासन में इसका सर्वाधिक महत्त्व है। प्रतिक्रमण का नाम आवश्यक क्यों?
• प्रतिक्रमण का मूल नाम आवश्यक है।
• यह क्रिया मुनि एवं गृहस्थ दोनों के लिए दिवस और रात्रि के अंत में अवश्य करने योग्य होने से इसका नाम आवश्यक है। • यह क्रिया सभी प्रकार के जीवों में ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को प्रकट करती है इसलिए इसे आवश्यक कहा जाता है।
• जो गुणों से आत्मा को वासित करता है वह आवश्यक, आवासक कहलाता है।