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36... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
यह है कि भगवान महावीर का सप्रतिक्रमण धर्म है। अतः साधक के लिए प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। स्पष्ट है कि प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण आवश्यक का नियत काल है। वन्दन आदि अन्य आवश्यक प्रतिक्रमण आवश्यक की पूर्व भूमिका एवं उत्तरक्रिया के रूप में ही होते हैं । इसलिए सभी आवश्यकों को 'प्रतिक्रमण' नाम से सम्बोधित करना उचित है। प्रतिक्रमण क्रिया के प्रति भावोल्लास कैसे उत्पन्न करें?
प्रतिक्रमण क्रिया के प्रति मन को अनुरंजित करने के लिए यह समझना जरूरी है कि यह पाप निवारण की क्रिया है और जैन शासन में पाप निवृत्ति हेतु कई उपाय बताये गये हैं। क्योंकि चौदह गुणस्थानों की सीढ़ियों पर आरोहण उन-उन पापों के निवारण पूर्वक होता है। जैसे- मिथ्यात्व पाप का निवारण हो तो ही सम्यक्तव रूप चौथे गुणस्थान पर चढ़ सकते हैं, अल्प मात्रा में अविरति पाप का निवारण होने पर ही पाँचवे देशविरति गुणस्थान को प्राप्त किया जा सकता है, ऐसे ही समस्त अविरति के पापों का निवारण होने पर छठें सर्वविरति गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। इसी तरह प्रमाद रूपी पाप का निवारण हो तो सातवें अप्रमत्त गुणस्थान, क्रोधादि कषाय अमुक-अमुक परिमाण में घटते जायें तो आठवें, नौवें आदि गुणस्थानों पर आरोहण होता है। इसका अभिप्राय यह है कि जैन धर्म में पाप निवारण की क्रिया को बहुत महत्त्व दिया गया है।
प्रतिक्रमण के प्रति मन को रस विभोर करने के लिए प्रथम उपाय यह है कि प्रतिक्रमण क्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व हृदय में उल्लास होना चाहिए, इसमें 'खेद' नामक दोष का अभाव होता है। दूसरे, प्रतिक्रमण से होने वाले लाभों पर विचार करना चाहिए। तीसरे क्रम पर यह सोचना चाहिए कि संसारी कर्मबद्ध आत्माएँ प्रतिसमय सात कर्म भी बांधती हैं और वह कार्मण वर्गणाएँ आत्म प्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत एकमेक हो जाती हैं। शास्त्रकारों ने कर्मबंध की प्रक्रिया को अनेक रीतियों से समझाया है। उनमें 1. स्पृष्ट कर्मबंध 2. बद्ध कर्मबंध 3. निधत्त कर्मबंध और 4. निकाचित कर्मबंध - ये चार प्रकार मुख्य हैं। इन चार प्रकारों में से स्पृष्ट और बद्ध- इन दोनों से बंधे हुए कर्म पश्चाताप और प्रतिक्रमण से नष्ट हो जाते हैं। अज्ञानता, प्रमाद, माया आदि कषायों की परवशता, इन्द्रियाधीन आदि के द्वारा किये गये कर्मों से मुक्त होने के लिए अरिहन्त उपदिष्ट प्रतिक्रमण की क्रिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।