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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...35 असंभव अतिचारों का प्रतिक्रमण क्यों? __ जैन साधकों के लिए यह भी ध्यातव्य है कि दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण करते समय ऐसे अतिचारों का भी उच्चारण किया जाता है, जिनका आसेवन दिन-रात में सम्भव नहीं है, ऐसा क्यों? चूर्णिकार ने इसके मुख्य तीन हेतु बतलाये हैं- 1. संवेगवृद्धि 2. अप्रमाद की साधना और 3. निन्दा-गर्दा। __असेवित अतिचारों का नामोच्चारण या स्मरण करने से वैराग्य भाव की अभिवृद्धि होती है, अप्रमत्त दशा का जागरण होता है तथा उन दोषों को कभी भी न करने के प्रति संकल्प दृढ़ बनता है। यदि पूर्वकाल में ऐसे दोषों का आचरण कर लिया गया हो, तो गुरु साक्षीपूर्वक उनकी आलोचना करने से उतनी आत्म विशुद्धि भी हो जाती है। प्रतिक्रमण प्रतिदिन करना जरूरी क्यों?
मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि दोषों के कारण जानेअनजाने में मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्तियाँ अविरत चालू ही रहती है। ऐसी स्थिति में प्रतिक्रमण करना ही चाहिए, जिससे जीव पाप कार्य करते हुए रूक जाए तथा किए हुए दुष्कृत्यों के लिये पश्चाताप हो और पापाचरण न करने के लिये जागृत रहे। इससे चित्त की विशुद्धि भी होती है, पुराने कर्म खपते हैं और चारित्र गुण की उत्तरोत्तर विशुद्धि होती है। ___ यदि पाप कार्य प्रतिदिन होते हैं तो उन्हें क्षीण करने के लिए प्रतिक्रमण भी हर रोज करना ही चाहिए। प्रतिक्रमण का दूसरा नाम 'आवश्यक' है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे 'आवश्यक' नाम से ही कहा गया है। यह 'आवश्यक' शब्द अवश्य से बना है। अवश्य अर्थात जरूरी करने योग्य। इसीलिए प्रत्येक जैन को यह क्रिया करनी चाहिए। संसारी आत्मा दोषों से भरपूर है। भूल करना और उसे छिपाना, यह आज का भयंकर मानसिक रोग है। इस रोग से छुटकारा पाने का सरलतम उपाय 'प्रतिक्रमण' ही है। छह आवश्यक रूप क्रिया को प्रतिक्रमण की संज्ञा क्यों? __ छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है,परन्तु आजकल षडावश्यक रूप संयुक्त क्रिया को 'प्रतिक्रमण' ही कहा जाता है। इसके कुछ कारण निम्न हो सकते हैं
प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है और सब आवश्यकों में अक्षर प्रमाण में बड़ा है अतः सभी आवश्यकों को प्रतिक्रमण नाम से पुकारा गया है। दूसरा हेतु