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34... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
10. जिन मत के विपरीत प्ररूपणा (कथन) करने पर।
श्रावक को किन स्थितियों में प्रतिक्रमण करना चाहिए, इस सम्बन्ध में पृथक् रूप से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, यद्यपि प्रचलित परम्परा एवं परवर्ती कृतियों के आधार पर उनके लिए प्रतिक्रमण योग्य स्थान निम्न प्रकार हैं1. पौषधव्रती या उपधानवाही हो तो- वसति के कूड़े-कर्कट का परिष्ठापन
करने पर। 2. वस्त्र आदि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करने पर। 3. उपाश्रय से सौ हाथ की दूरी तक गमनागमन करने पर। 4. मल-मूत्र आदि का परिष्ठापन या तद्योग्य क्रिया करने पर। 5. सामान्य श्रावक के लिए सामायिक आदि धार्मिक अनुष्ठान प्रारम्भ करते
समय।
6. दिन, रात्रि, पक्ष, चातुर्मास या वर्ष में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के
लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। अतिचार के हेतु __व्रत जीवन को संयमित, मर्यादित एवं अक्षुण्ण बनाता है जबकि अतिचार उसे खण्डित, विश्रृंखलित कर देता है। व्रत चिकित्सा है और अतिचार जख्म है। बाह्य जख्म को ठीक करने के अनेक उपचार हैं किन्तु भाव जख्म को दूर करने का एक मात्र उपचार प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त है।
यहाँ मननीय है कि अतिचार कब, किन स्थितियों में लगते हैं? तब नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी इस सन्दर्भ में उल्लेख करते हुए कहते हैं कि सहसा, अज्ञान, भय, अन्य प्रेरणा, विपत्ति, रोग आतंक, मूढ़ता और राग द्वेष- इन कारणों से अतिचार लगते हैं।
. इस वर्णन का स्पष्ट आशय यह है कि हमारे जीवन में जब कभी किसी प्रकार के दोषों का सेवन हो जाए या कर लिया जाए तो उनमें उक्त हेतु ही मुख्य हैं। ___ओघनियुक्ति के अनुसार जिन हेतुओं से अतिचार लगते हैं उन अतिचारों का प्रतिक्रमण इस प्रकार से करना चाहिए कि पुन: दोषों का समाचरण न हो और उनकी स्मृति भी भाररूप में न रहें।