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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ... 33 अपितु वर्तमान और भविष्य के दोषों की भी शुद्धि करता है। आचार्य भद्रबाहु ने इस मत का पूर्ण रूप से समर्थन किया है। उन्होंने इतना भी कहा है कि अतीतकाल में लगे हुए दोषों की शुद्धि तो आलोचना - प्रतिक्रमण में की जाती है, किन्तु संवर साधना में लगे रहने से साधक वर्तमान के पापों से भी निवृत्त हो जाता है। इसी के साथ प्रतिक्रमण करते हुए प्रत्याख्यान ग्रहण करता है, जिसके कारण भावी दोषों से भी बच जाता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण के माध्यम से तीन कालों की शुद्धि होती है। अतः साधक के लिए प्रतिदिन उभय सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करना परमावश्यक है। प्रतिक्रमण कब करें? प्रतिक्रमण स्वशुद्धि की एक अमूल्य विधा है। हमारे द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप से अतिक्रमण की अनेक क्रियाएँ होती है, जिनसे दूसरों को कष्ट पहुँचता है एवं अपनी आत्मा मलिन बनती है अतः जिस समय अतिचारों (दोषों) का सेवन हो जाये अथवा जब उसका ज्ञान एवं भान हो जाये उसी समय साधक को अन्तर्मन से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। जैन शास्त्रों के निर्देशानुसार सेवित अतिचारों का जितना शीघ्र प्रतिक्रमण किया जायेगा उतनी ही जल्दी आत्मशुद्धि होगी। हम जब तक प्रतिक्रमण नहीं करते, हमारी आत्मा दूषित ही बनी रहती है तथा उस दोष की अनुमोदना रूप पाप का बंध भी चलता रहता है। जैन गगन के विश्रुत आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार मुनि को निम्न स्थितियों में प्रतिक्रमण करना चाहिए 1. वस्त्र, पात्र एवं वसति आदि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करने पर । 2. आहार- पानी शेष बच गया हो, तो उसका परिष्ठापन करने पर। 3. उपाश्रय के कूड़े-कर्कट (काजा) का विसर्जन करने पर । 4. उपाश्रय से सौ हाथ की दूरी तय कर मुहूर्त भर उसी स्थान में ठहरने पर । 5. विहार, स्थंडिलगमन, भिक्षाचर्या आदि गमनागमन रूप प्रवृत्ति से निवृत्त होने पर। 6. नौका द्वारा जलमार्ग पार करने पर। 7. प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर । 8. स्वाध्याय आदि नहीं करने पर । 9. तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों के प्रति अश्रद्धा होने पर ।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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