SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ... 31 इस प्रकार उक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि पापकर्म करने योग्य नहीं है, पापस्थान सेवन योग्य नहीं है फिर भी संसारी आत्माएँ मूढ़ता, प्रमाद, अहंकार आदि दोषों के अधीन होकर पापकर्मों का निरन्तर सेवन कर रही हैं। यदि अभिमान पूर्वक पाप प्रवृत्ति चलती रहे तो आत्म उद्धार की संभावना कैसे की जा सकती है? जैसे अधिक भार से लदा हुआ वाहन समुद्र में डूब जाता है वैसे ही घनीभूत पापकर्मों से युक्त आत्मा संसार सागर में डूब जाती है और उसे अनंतकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ता है। इस परिस्थिति में पाप की शुद्धि करना आवश्यक है। यह शुद्धिकरण प्रतिक्रमण के द्वारा ही संभव है। जैनाचार्यों के अनुसार पापक्षय, पापहानि, पापमोचन या पापशुद्धि का मुख्य हेतु प्रतिक्रमण ही है। इसलिए प्रतिक्रमण का एक प्रयोजन पाप कर्मों का क्षय है। प्रतिक्रमण कौन, किसका करें? प्रतिक्रमण, आत्मविशुद्धि की अमोघ साधना है इसीलिए यह सभी के लिए अवश्य करणीय है। यहाँ महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि प्रतिक्रमण किन - किन कृत्यों का करना चाहिए? और उसके अधिकारी कौन है? आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने इस सन्दर्भ में सम्यक् प्रकाश डाला है। वे साधक को उत्प्रेरित करते हुए प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर अनुचिन्तन करने का निर्देश करते हैं। प्रतिक्रमण योग्य विषयों का प्रतिपादन इस प्रकार है - 1. श्रमण और श्रावक के लिए क्रमशः महाव्रतों और अणुव्रतों का विधान है। यद्यपि श्रमण और श्रावक गृहीत व्रतों के प्रति सतत सावधान रहते हैं फिर भी कभी - कभी प्रमादवश अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह में स्खलना हो जाती है अथवा 1. 'पडिसिद्धाणं करणे' - श्रमण एवं गृहस्थ के लिए हिंसा आदि पाँच प्रकार के पाप कर्मों का निषेध किया गया है, उनका आचरण कर लेने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। 2. 'किच्चाणमकरणे' - आगम शास्त्र में जिन कार्यों के करने का विधान किया गया है उन विहित कार्यों का आचरण न करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। जैन परम्परा में श्रमण और श्रावकों के लिए एक निश्चित आचार संहिता है उसमें श्रमण के लिए स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन आदि क्रियाओं का विधान हैं और श्रावक के लिए प्रभु पूजा, गुरु सेवा, जिनवाणी श्रवण आदि अनुष्ठानों
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy