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________________ 30... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना भी पाप कर्म नहीं करने की आज्ञा दी गई है। इस जगत में कोई भी संत- महर्षि ऐसा नहीं है जिसने पाप कर्म को छोड़ने पर बल न दिया हो, इसलिए पाप कर्म अवश्य वर्जनीय है। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि पापकर्मों का त्याग क्यों करना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि पापकर्म करने से आत्मा भारी कर्म बंधन करती है और उसका कटुफल भोगने के लिए उस जीव को चार गति और चौराशी लाख जीव योनि रूप संसार में निरन्तर परिभ्रमण करना पड़ता है जहाँ सदैव कष्ट या आपत्तियों का ही अनुभव होता है । तो क्या बुद्धिमान मनुष्य उपाधि युक्त स्थिति की इच्छा करेगा ? इस दुनियाँ में प्राणियों को दुःख रूप जो कुछ अनुभव होता है वह पाप कर्मों के ही अधीन है अतः कहा गया है - "दुःखं पापात्" । दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि पापकर्मों का वर्जन करना हो तो पापकर्म किसे कहा जाये ? पापकर्म के साधन कौनसे हैं ? पाप के प्रकार कितने हैं? जैन महर्षियों ने पाप की व्याख्या में कहा है- "पायति शोषयति पुण्यं, पांशयति गुण्डयति वा जीव वस्त्रमिति पापम्" अर्थात जो पुण्य का शोषण करें अथवा जीव रूपी वस्त्र को मलीन करें वह पाप है । जैसे - वस्त्र कीचड़ आदि से मलीन होता है वैसे ही जीव पाप कार्यों से विकारी बनता है । , पाप कर्म के तीन साधन हैं मन, वचन और काया । दुष्प्रवृत्तियाँ वचन आदि तीनों साधनों से होती हैं। यहाँ इतना जान लेना जरूरी है कि जहाँ मानसिक पाप हो वहाँ वाचिक और कायिक पापकर्म हो भी सकता है और नहीं भी, किन्तु जहाँ वाचिक या कायिक पाप हो, वहाँ मानसिक पाप प्रायः होता है क्योंकि मन में दुष्ट विचार उत्पन्न हुए बिना वाणी या काया की दुष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। पाप के प्राणातिपात-मृषावाद - अदत्तादान आदि अठारह प्रकार बताये गये हैं। इन 18 स्थानों का सेवन करने से आत्मा पापयुक्त बनती है। वैदिक धर्म में कायिक पाप तीन प्रकार के कहे गये हैं- 1. चोरी, 2. हिंसा और 3. परस्त्रीगमन । वाचिक पाप चार प्रकार के बताये गये हैं- 1. कठोर भाषण 2. झूठ बोलना 3. चुगली करना और 4. असंबद्ध प्रलाप करना। मानसिक पाप तीन प्रकार का बतलाया गया है - 1. परद्रव्य की इच्छा करना 2. मन से अनिष्ट चिंतन करना और 3. कदाग्रह रखना।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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