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28... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
• अनचाही भूलें - इस श्रेणि की भूलें पूर्वधरों, छद्मस्थ साधकों या मुमुक्षु श्रावकों आदि किसी के भी द्वारा हो सकती हैं और होती भी हैं, जैसे- स्वाध्याय करते हुए चित्त का स्खलन हो जाना, प्रतिलेखन करते हुए दृष्टि विपर्यास हो जाना, कायोत्सर्ग करते हुए देहभाव जागृत हो जाना आदि भूलें अनायास या अनभ्यास दशा में सहज होती हैं, इनके लिए पहले से मानसिकता नहीं होती। अतः इन भूलों का परिमार्जन 'मिच्छामि दुक्कडं' या सामान्य 'पश्चाताप' के द्वारा किया जा सकता है।
4. सम्यग्दर्शन आदि की पुष्टि के लिए
सामायिक आदि छह आवश्यकों में एक आवश्यक प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है- अपराधों से पीछे हटना, पाप की निन्दा, गर्हा और पश्चात्ताप करना। ऐसा पश्चात्ताप करने से पहले सामायिक, देववंदन, गुरुवंदन आदि आवश्यक है। उसके पश्चात प्रतिक्रमण द्वारा पापों का क्षय सम्पूर्ण रूप से हो सके, तदर्थ कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान करना जरूरी है। इसलिए छह आवश्यकों के एकत्रित नाम को भी प्रतिक्रमण कहा जाता है।
यह एक मोक्ष साधनभूत महान योग है। जीव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति के कारण संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इससे स्वाभाविक है कि जीव संसार के प्रतिपक्षी कारणों सम्यग्दर्शन, पाप विरति, उपशम और शुभप्रवृत्ति का आलंबन ले तो संसार के तुओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
प्रतिक्रमण क्रिया के द्वारा सम्यग्दर्शन आदि की आराधना उत्तम प्रकार से होती है क्योंकि सामायिक आदि छह आवश्यकों में सम्यग्दर्शन आदि की साधना का इस प्रकार समावेश होता है
1. सामायिक आवश्यक में सर्व सावद्य योगों का त्याग करने की प्रतिज्ञा करते हैं। इससे विरति और समभाव की आराधना का संकल्प पूर्वक स्वीकार होता है।
2. चतुर्विंशति आवश्यक में चौबीस तीर्थंकरों की स्तवना और प्रार्थना करते हैं। इससे देव आदि तत्त्व की सम्यग् श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। 3. वंदन आवश्यक में गुरु की विस्तार पूर्वक सुखपृच्छा करते हु उनके प्रति हुई आशातनाओं की क्षमा मांगने से अहंकार आदि कषायों का नाश