SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...27 स्वाभाविकतया भान भूल जाता है, जिसके फलस्वरूप गाली देना, मारना, पीटना, कुछ का कुछ कह देना आदि विषम रूप प्रगट हो उठते हैं। सामाजिक क्षेत्र में इस कोटि की भूलों का अधिक मूल्य तो नहीं है और समझदार प्रायः इस पर ध्यान भी नहीं देते हैं, फिर भी आध्यात्मिक क्षेत्र में यह भूल क्षमा माँगने, दूसरे का खेद मिटाने और पश्चात्ताप करने योग्य है। जैसे आंख में गिरा हुआ छोटा सा तिनका या रजकण भी खटकता है, पैर में लगे हए छोटे काँटे को भी निकाले बिना गति नहीं मिलती। इसी तरह विवेकी, मोक्षलक्षी एवं आत्मजयी पुरुषों को आवेशजन्य भूल की भी तत्काल क्षमायाचना कर अन्तर्हृदय से पश्चात्ताप कर लेना चाहिए, जिससे ये भूलें आगे नहीं बढ़ें। यह उल्लेख्य है कि आवेशजन्य भूलें जान बूझकर नहीं होती, फिर भी दूसरों के दिल को ठेस पहुँचाने एवं आत्म भावों को दूषित करने के कारण पश्चात्ताप करने योग्य है। ___ • योजनाबद्ध भूलें- जो भूलें जान-बूझकर एवं संकल्पपूर्वक की जाती है, वे योजनाबद्ध कहलाती हैं। इस प्रकार की भूलें प्राय: द्वेष, ईर्ष्या, वासनापूर्ति, संग्रहवृत्ति, अर्थसंग्रह, प्रतिकार, प्रतिक्रिया आदि स्थितियों में होती हैं। सामाजिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से इस श्रेणी की भूलें क्षम्य नहीं है, अतएव दण्डनीय मानी गई हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत हत्या करना, धोखा देना, जालसाजी करना, व्यभिचार, देशद्रोह, रिश्वतखोरी, कलंक देना आदि भूलों का समावेश होता है। व्यवहार क्षेत्र में इस प्रकार के कुकर्म करने वाला कठोर दण्ड का अधिकारी होता है और साधना के क्षेत्र में उग्र प्रायश्चित्त का। अध्यात्म दृष्टि से ये भूलें कषायजनित, प्रतिक्रियात्मक, संसारसर्जक एवं भयंकर द्वेष वर्द्धक होती हैं। तन के कैंसर की गाँठ तो एक जन्म को समाप्त करती है, जबकि मन के कषाय की गाँठे जन्म-जन्मान्तर तक दु:ख देती हैं। गहरा पश्चात्ताप, उग्र तप और दीर्घकाल का संयम भी कभी-कभी इन भूलों के परिमार्जन में पर्याप्त नहीं होता अत: ऐसी भूलें सम्यग्दृष्टि साधक के जीवन में नहीं होती हैं अथवा इन भूलों के होने पर श्रावकत्व और साधुत्व के भाव नहीं रहते हैं। कदाच पूर्व कर्मोदय के कारण अनचाहे भी संकल्पबद्ध भूलें हो जाए तो उसके लिए प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त से भी बढ़कर तप आदि के प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy