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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...25 1. क्रोधादि विकृतियों का निराकरण करने के लिए ___सामान्य तौर पर मानस चेतना की छोटी-बड़ी सभी विकृतियाँ जो किसी न किसी रूप में पाप की श्रेणी में आती हैं उनके प्रतिकार के लिए प्रतिक्रमण एक महौषधि के रूप में है। जैसे तन की विकृति रोग है वैसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकृतियाँ मन एवं आत्मा के रोग हैं। रोग की चिकित्सा आवश्यक है, अन्यथा उसके दीर्घगामी दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। दसरे, शारीरिक बीमारियों को दूर करने के लिए ऐलोपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक आदि का इलाज आवश्यक होता है। उसी तरह मानसिक विकृतियों का उपचार (परिमार्जन) करने के लिए प्रतिक्रमण का विधान बतलाया गया है। 2. मिथ्यात्व आदि दोषों का प्रक्षालन करने के लिए
प्रतिक्रमण पाप-प्रक्षालन की अदभूत क्रिया है, इसलिए इस आवश्यक कर्म को प्रतिदिन करने का निर्देश है, जिससे हर दिन में लगे दोषों की शुद्धि उसी दिन हो जाये। प्रतिक्रमण की नियमित साधना करने से व्रत पालन में तेजस्विता आती है। पापशल्य व्रत-पालन में अवरोधक है अत: पापशल्य को निकालने हेतु प्रतिक्रमण किया जाता है। ___ साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग- ये पाँच भयंकर दोष हैं। साधक को इन दोषों से परिमुक्त होने के लिए प्रात:-सायं अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करते हुए चिन्तन करना चाहिए कि वह सम्यक्त्व के प्रशस्त मार्ग को छोड़कर मिथ्यात्व के ऊबड़-खाबड़ अप्रशस्त मार्ग में तो नहीं भटका है? व्रत नियम को विस्मृत कर अव्रत को ग्रहण करने में तो नहीं लगा है? अप्रमत्तता के स्थान पर प्रमाद का सेवन तो नहीं कर रहा है, उपशम आदि आनंदमयी स्थिति का त्याग कर क्रोधादि के भयावह मार्ग का सेवन तो नहीं कर रहा है? योगों की प्रवृत्ति शुभ अध्यवसायों के स्थान पर ईर्ष्यादि अशुभ भाव रूप तो नहीं बन गई है? यदि ऐसा हो गया है तो अशुभ को त्याग कर शुभ की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। इसी भावना को मूर्त रूप प्रदान करने हेतु प्रतिक्रमण की साधना की जाती है। 3. भूलों का संशोधन करने के लिए
संसार दशा में जीते हुए भूल होना स्वाभाविक है। सांसारिक प्रवृत्तियों में रचा-पचा व्यक्ति छद्मस्थ कहलाता है। भूल होना छद्मस्थ मानव की प्रकृति है।