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________________ अध्याय-2 प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान जैन साधना पद्धति में प्रतिक्रमण को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। परन्तु प्रतिक्रमण में ऐसी क्या विशेषताएँ हैं, जिसके कारण उसे यह स्थान मिला यह एक विचारणीय तथ्य है। इसमें अन्तर्भुत रहस्यों का ज्ञान एवं उनकी अनुभूति साधक को तब ही हो सकती है, जब वह उसकी गहराई में प्रवेश करें। इस शाश्वत जैन परम्परा में तीर्थंकरों एवं अनेकशः साधकों ने इनकी आत्मानुभूति कर इसका स्वरूप श्रुत एवं गुरु परम्परा के द्वारा हमें नवनीत के रूप में दिया है। उसी नवनीत के द्वारा हम अपने आत्मस्वरूप को निर्मल बना सकते हैं। आवश्यकता है तो उस विषय में जानने की। प्रतिक्रमण क्रिया आवश्यक क्यों? प्रतिक्रमण एक अन्तर्मुखी साधना है। अनादिकाल से आत्मा के अन्दर जो कामना आदि विषय और क्रोध आदि कषाय हमारे अपने अज्ञान, असावधानी अथवा प्रमाद से प्रविष्ट हो गये हैं, उनका निष्कासन कर भीतर में सोये हुए ईश्वरत्व को जगाने की साधना है। आप्तवाणी के आधार पर हमारे अन्दर पशुत्व, असुरत्व, दानवत्व की जो वृत्ति आ गई है, वह स्वभावजन्य नहीं है, इधर-उधर बाहर से आई है, यह अपना मूल स्वरूप नहीं है। जैन दर्शन कहता है कि हे आत्मन्! तूं अभी घनघोर घटाओं से घिरे हुए, बादलों में छुपे हुए सूर्य के समान है। तुझे बाहर से भले ही बादलों ने घेर रखा हो, पर तूं अन्दर से तेजस्वी सूर्य है, सहस्ररश्मियों से ही नहीं, अनन्त रश्मियों से युक्त है। तेरी चेतना शक्ति के ऊपर कर्मों के बादल छा गये हैं, वासनाओं की काली घटाएँ आ गई हैं, कषाय रूपी ग्रहों ने ग्रसित कर लिया है, उसी के कारण तेरा अनिर्वचनीय तेज, अनन्त प्रकाश लुप्त हो गया है। प्रतिक्रमण इसका विरोधी तत्त्व है। अत: आत्म प्रकाश को अनावृत्त करने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। मौलिक चिन्तन के अनुसार प्रतिक्रमण के कुछ हेतु निम्नलिखित हैं
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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