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________________ प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण ...19 सप्तविध- दिगम्बर ग्रन्थों में काल के आधार पर प्रतिक्रमण के सात प्रकार भी निर्दिष्ट हैं 1. दैवसिक- दिवस भर में हए दोषों की आलोचना करना अथवा ऊपर वर्णित नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से लगे हुए दोषों का त्रियोग से शोधन करना, दैवसिक प्रतिक्रमण है। 2. रात्रिक- रात्रि भर में हुए दोषों अथवा पूर्ववत द्रव्यादि छः प्रकार के आश्रित लगने वाले दोषों की आलोचना करना, रात्रिक प्रतिक्रमण है। 3. ईर्यापथ- भिक्षा, स्थण्डिल, वन्दन आदि के लिए मार्ग में चलते हुए षड्काय जीवों के विषय में किसी प्रकार की विराधना हुई हो, तो उनसे निवृत्त होना, ईर्यापथ प्रतिक्रमण है। . 4. पाक्षिक- सम्पूर्ण पक्ष में लगे हुए दोषों की निवृत्ति के लिए प्रत्येक चतुर्दशी या अमावस्या और पूर्णिमा को उनकी आलोचना करना, पाक्षिक प्रतिक्रमण है। ____5. चातुर्मासिक- चार माह के दरम्यान लगे हुए दोषों की निवृत्ति हेतु कार्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़ माह की चतुर्दशी या पूर्णिमा को स्मरण पूर्वक आलोचना करना, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। 6. सांवत्सरिक- वर्ष भर में लगे हुए अतिचारों की निवृत्ति हेतु प्रत्येक वर्ष आषाढ़ माह के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन चिन्तन पूर्वक आलोचना करना, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। ___7. उत्तमार्थ- उत्तम+अर्थ का तात्पर्य है श्रेष्ठ प्रयोजन से। संथारा ग्रहण करने के लिए यावज्जीवन के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करना, उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।49 अष्टविध- श्वेताम्बर परम्परा का सप्रसिद्ध ग्रन्थ आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमण के उक्त भेदों के आधार पर आठ प्रकार भी उल्लिखित हैं __1. दैवसिक प्रतिक्रमण 2. रात्रिक प्रतिक्रमण 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण 5. पाक्षिक प्रतिक्रमण 6. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण 7. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण 8. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण-अनशन के समय किया जाने वाला।50 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण- उच्चार-प्रस्रवण और श्लेष्म का परिष्ठापन
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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