________________
प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण ...17 काल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार निम्न हैं
1. दैवसिक- दिन के अन्त में सायंकाल के समय दिनभर की पापालोचना करना, दैवसिक प्रतिक्रमण है।
2. रात्रिक- रात्रि में जो दोष लगे हों, उन पापों की निवृत्ति हेतु रात्रि के अन्त में आलोचना करना, रात्रिक प्रतिक्रमण है।
3. पाक्षिक- प्रत्येक पक्ष (पन्द्रह दिन) के अन्त में चतुर्दशी या अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उस पक्ष में आचरित पापों का सम्यक विचार कर उन्हें गुरु के समक्ष प्रकट करना, पाक्षिक प्रतिक्रमण है। ____4. चातुर्मासिक- चार-चार मास के पश्चात कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढ़ी पूर्णिमा या चतुर्दशी के दिन चार महीनों में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है।
5. सांवत्सरिक- आषाढ़ी पूर्णिमा के उनपचास या पचासवें दिन वर्ष भर में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।46
षड्विध- स्थानांगसूत्र में भिन्न-भिन्न दृष्टियों से प्रतिक्रमण के छह प्रकार उपदिष्ट हैं
1. उच्चार प्रतिक्रमण- विवेक पूर्वक मल विसर्जन के पश्चात उपाश्रय में लौटकर गमनागमन आदि में लगे दोषों की शुद्धि (ईर्यापथ प्रतिक्रमण) करना, उच्चार प्रतिक्रमण है। .
2. प्रस्रवण प्रतिक्रमण- विवेक पूर्वक मूत्र विसर्जन के पश्चात उपाश्रय में लौटकर गमनागमन आदि में लगे दोषों की शुद्धि (ईर्यापथ प्रतिक्रमण) करना, प्रस्रवण प्रतिक्रमण है।
3. इत्वर प्रतिक्रमण- दैवसिक, रात्रिक आदि स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना अथवा किसी प्रकार की भूल हो जाने पर तत्काल मिथ्यादुष्कृत देना, इत्वरिक प्रतिक्रमण है।
4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण- यावत्काल (सम्पूर्ण जीवन) के लिए ग्रहण करने योग्य महाव्रत आदि में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने का संकल्प करना अथवा जीवन के अन्तिम काल में संलेखना या अनशन व्रत धारण करते हुए समस्त पापों का मिथ्या दुष्कृत देना, यावत्कथिक प्रतिक्रमण है।