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16... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना में प्रविष्ट होते हैं। आस्रव कारण है और कर्मबंध कार्य है। आस्रव के द्वार प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होने का संकल्प करना, आस्रवद्वार प्रतिक्रमण है।
2.मिथ्यात्व प्रतिक्रमण- जीव आदि नव तत्त्वों के प्रति विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करना मिथ्यात्व कहलाता है, जैसे मदिरापान के कारण बुद्धि मूर्च्छित हो जाती है वैसे ही मिथ्यात्व के उदय से आत्मा का विवेक लुप्त हो जाता है। वह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है। इस मिथ्यात्व के कारण ही वस्तु स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है और जीव को तत्त्व एवं अतत्त्व का भेद विज्ञान नहीं हो पाता।
आत्मा के परिणाम उपयोग, अनुपयोग या सहसा कारणवश मिथ्यात्व रूप में प्राप्त होने पर उससे निवृत्त होना, मिथ्यात्व प्रतिक्रमण है।42
3. कषाय प्रतिक्रमण- कषाय शब्द कष् + आय से निष्पन्न है। कष का अर्थ- संसार और आय का अर्थ- लाभ अर्थात जिससे संसार की अभिवृद्धि हो, उसे कषाय कहते हैं। संसार अभिवर्द्धन का मूल कारण कषाय है। कषाय मुख्य रूप से राग और द्वेष रूप होता है।43 इन दोनों में क्रोध आदि चार का समन्वय हो जाता है। राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध और मान का अन्तर्भाव होता है।44 कषाय परिणाम से आत्मा को निवृत्त करना, कषाय प्रतिक्रमण है।
4. योग प्रतिक्रमण- मन, वचन और काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होना, योग कहलाता है। जैन ग्रन्थों में योग को आस्रव (कर्मों के आने का द्वार) कहा गया है। शुभ योग से पुण्य का आस्रव (आगमन) होता है और अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है। मन, वचन और काया का अशुभ व्यपार होने पर उनसे आत्मा को पृथक् करना योग प्रतिक्रमण है।
5. भाव प्रतिक्रमण- मिथ्यात्व, कषाय और योग- इनमें तीन करण एवं तीन योग से प्रवृत्ति न करना, भाव प्रतिक्रमण है। प्रकारान्तर से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग के भेद से भी प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का कहा गया है, किन्तु वास्तव में ये पाँचों भेद एक ही हैं। अविरति और प्रमाद इन दोनों का समावेश 'आस्रवद्वार' में हो जाता है। ये पाँचों कर्मबंध के मुख्य हेतु हैं, इन दोषों से निवृत्त होने का संकल्प करने वाला साधक अपने जीवन को निर्मल बना देता है। इस प्रकार पाप कर्म के महारोग को विनष्ट करने के लिए प्रतिक्रमण अमोघ औषधि है।45