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प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण ...15 प्रतिक्रमण 2. त्रिविध आहार त्याग प्रतिक्रमण 3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण।38 ___1. सर्वातिचार प्रतिक्रमण- दीक्षाकाल से लेकर अन्तिम समय तक लगे दोषों से निवृत्त होना, सर्वातिचार प्रतिक्रमण है। सल्लेखना ग्रहण करने वाला तपस्वी मुनि सर्वप्रथम सर्वातिचार प्रतिक्रमण करता है।
2. त्रिविध आहार त्याग प्रतिक्रमण- सर्वातिचार का प्रतिक्रमण करने के पश्चात त्रिविध आहार का त्याग कर देना, त्रिविध त्याग प्रतिक्रमण है।
3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण- अन्तिम समय में पानी-आहार का भी त्याग कर देना, उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
चतुर्विध- मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दि ने आराधना शास्त्र के आधार पर चार प्रकार के प्रतिक्रमणों का निरूपण किया है- 1. योग 2. इन्द्रिय 3. शरीर और 4. कषाय।39
1. योग प्रतिक्रमण- मन, वचन एवं काया- इन योगों का निग्रह करना, योग प्रतिक्रमण है। ___ 2. इन्द्रिय प्रतिक्रमण- पाँच प्रकार के इन्द्रियों का निग्रह करना, इन्द्रिय प्रतिक्रमण है।
3. शरीर प्रतिक्रमण- औदारिक आदि पाँच प्रकार के शरीर को कृश करना, उनके प्रति ममत्व बुद्धि को न्यून करना, शरीर प्रतिक्रमण है।
4. कषाय प्रतिक्रमण- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन- इन प्रत्येक के क्रोध आदि चार-चार भेद रूप सोलह कषायों और हास्य आदि नोकषायों का निगृह करना, उन्हें कुश करना, कषाय प्रतिक्रमण है। समाधिमरण काल में हाथ-पैर आदि की चेष्टाओं का निरोध कर शरीर को स्थिर करना भी प्रतिक्रमण कहलाता है। . पंचविध- जैन आगमों में प्रतिक्रमण के पाँच भेदों की चर्चा दो प्रकार से
की गई है। कर्म बन्ध के कारणों का उच्छेद करने की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पाँच भेद निम्न हैं-40
1. आस्रव प्रतिक्रमण- कर्मों के आगमन का मार्ग अथवा मन, वचन और काय का क्रिया रूप योग आस्रव कहलाता है। जैसे घट के निर्माण में मिट्टी और वृक्ष के लिए बीज कारण होता है वैसे आत्मा के साथ कर्मों का संयोग होने में आस्रव कारण है। आस्रव के निमित्त से ही शुभाशुभ कर्म आत्मा