________________
प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण ...11
दिवा कागाण बीभेसि, रत्तिं तरसि नम्मदं ।
कुतित्थाणि य जाणासि, अच्छीणं ढक्कणाणि य ।। ब्राह्मण पत्नी ने जान लिया कि छात्र ने मेरा सारा रहस्य अवगत कर लिया है। वह उसके प्रति आसक्त हो गई और भय के कारण अपने पति को मरवा डाला कालान्तर में वह विक्षिप्त हुई घर-घर भिक्षार्थ जाती और कहती___'मैं पतिमारक हूँ, मैं पतिमारक हूँ, मुझे भिक्षा दो'- इस प्रकार गर्दा करती हुई आत्म साधना में संलग्न हो गई। तात्पर्य है कि गर्दा करने से ब्राह्मण पत्नी के सदृश आत्म परिणामों की विशुद्धि होती है। ___8. शुद्धि- शुद्ध का अर्थ है- निर्मलीकरण या पवित्रीकरण। प्रतिक्रमण, आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा को दोषों से मुक्त करना शुद्धि कहलाता है।29 जैसे सोने पर लगे हुए मैल को अग्नि में तपाकर शुद्ध किया जाता है, वैसे ही हृदय के मैल को प्रतिक्रमण करके दूर किया जाता है इसलिए उसे शुद्धि कहते हैं।
इस प्रसंग में राजा श्रेणिक और रजक का दृष्टान्त प्रसिद्ध है- एकदा राजा श्रेणिक ने रजक को दो रेशमी वस्त्र धोने के लिए दिए। उस दिन कौमुदी महोत्सव था। रजक ने उत्सव का दिन सोचकर दोनों वस्त्र अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए। वे उन्हीं रेशमी वस्त्रों को पहनकर महोत्सव में गई। उस क्षेत्र में भ्रमण करते हुए राजा ने अपने वस्त्र पहचान लिए। दोनों पत्नियों ने ताम्बूल से उन वस्त्रों को बिगाड़ दिया था। रजक ने उन्हें उपालंभ दिया। फिर क्षार पदार्थ से ताम्बुल के धब्बों को मिटाकर राजा को सुपुर्द करने लगा। तब राजा के पूछने पर उसने सही-सही ज्ञापित कर दिया। यह द्रव्य शोधि है, जबकि प्रतिक्रमण द्वारा भावविशोधि होती है।
संक्षेप में कहा जाए तो उपरोक्त पर्यायवाची शब्द भिन्न-भिन्न अपेक्षा से प्रतिक्रमण के विविध अर्थों का ही बोध कराते हैं। प्रतिक्रमण के प्रकार
'प्रति प्रति क्रमणं प्रतिक्रमणं'- इस निर्वचन से अशुभ योग से निवृत्त होकर नि:शल्य भाव से शुभ योग में प्रवर्तन करना प्रतिक्रमण है। जो अशुभयोग से निवृत्त होकर शुभ योग में रहता है वह प्रतिक्रामक (कर्ता) है तथा जिस अशुभ योग का प्रतिक्रमण होता है वह प्रतिक्रान्तव्य (कर्म) कहलाता है।