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________________ 6... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना प्रवचनसार के अनुसार आत्मा के मूल स्वरूप को प्रकट करने वाली क्रिया बृहद् प्रतिक्रमण कहलाती है।19 शब्द विन्यास की दृष्टि से प्रतिक्रमण का अर्थ इस प्रकार भी स्पष्ट किया गया है। प्रति प्रतिकूल, क्रम पद निक्षेप। इसका आशय है कि जिन पदों (कारणों) से मर्यादा के बाहर गया हो उन्हीं पदों से वापस लौट आना प्रतिक्रमण है। जैसा कि पूर्व में कहा भी गया है स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्यवशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। उपर्युक्त व्याख्याओं का समीकरण करें तो निम्न निष्पत्तियाँ उपलब्ध होती हैं • व्रत, नियम या मर्यादा का उल्लंघन हुआ हो तो पुन: उस मर्यादा में आना प्रतिक्रमण है। • शुभयोगों में से अशुभ योगों में प्रवृत्त हुई आत्मा का वापस शुभयोगों में आना प्रतिक्रमण है। • प्रमाद वश विभाव की ओर उन्मुख हुई आत्मा का पुनः स्वभाव में आना प्रतिक्रमण है। • मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योगों से आत्मा को हटाकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र में प्रवृत्त करना प्रतिक्रमण है। • किये हुए पाप कार्यों की आलोचना एवं उनका पश्चात्ताप करते हुए, उन्हें फिर से न दोहराने का संकल्प करना प्रतिक्रमण है। इस तरह प्रतिक्रमण एक प्रकार का आत्म स्नान है जिसके माध्यम से आत्मा कर्मरहित होकर हल्की एवं पवित्र बनती है। प्रतिक्रमण के एकार्थवाची नाम छः आवश्यक, दुर्विचारों एवं कुसंस्कारों के परिमार्जन की एक अध्यात्म प्रधान साधना है। यही वास्तविक अध्यात्मयोग है। प्रतिक्रमण-इसी अध्यात्मयोग का प्रमुख अंग है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने प्रतिक्रमण को विविध दृष्टियों से समझाने का प्रयास किया है। इसी उद्देश्य से आवश्यकनियुक्ति में इसके समानार्थक आठ
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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