________________
प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण...5 मास, संवत्सर तथा भूत-भविष्य-वर्तमान आदि काल के विषय में और मन के परिणाम रूप भाव के विषय में अथवा इन द्रव्यादि चतुष्क के द्वारा व्रतों में जो दोष उत्पन्न होते हैं उनका निन्दा-गर्हापूर्वक निराकरण करना अथवा अपने द्वारा किये गये अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना, गृहीत या ग्राह्य व्रतों में स्थिर हो जाना अथवा अशुभ परिणाम पूर्वक किये गये दोषों का परित्याग करना, इसका नाम प्रतिक्रमण है। ___ यहाँ अपने दोषों को आत्मसाक्षी पूर्वक प्रकट करना निन्दा है और गुरु आदि के समक्ष दोषों का प्रकाशन करना गर्दा है।
नियमसार में वाचिक प्रतिक्रमण को स्वाध्याय कहा है।13 धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने पूर्वोक्त बातों का अनुसरण करते हुए कहा है कि सद्गुरु के समक्ष आलोचना किए बिना, संवेग और निर्वेद से युक्त होकर, पूर्वकृत दोषों को दुबारा न करने का संकल्प कर अपने अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है।14
आचार्य कुन्दकुन्द निश्चय दृष्टि से प्रतिक्रमण का स्वरूप दर्शाते हुए कहते हैं कि पूर्वकाल से आबद्ध शुभ एवं अशुभ कर्म से अपनी आत्मा को विलग रखना, आत्म प्रतिक्रमण है।15 आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार में वर्णित है कि वाचिक प्रयोग को छोड़कर एवं रागादि भावों का निवारण करके जो केवल आत्मा को ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। जो भव्य जीव विराधना का परिहार करके आराधना में प्रवर्तन करता है, वह जीव प्रतिक्रमण कहलाता है, कारण कि वह प्रतिक्रमणमय है।16 इसी प्रकार अनाचार को छोड़कर आचार में, उन्मार्ग का त्याग करके जिनमार्ग में, शल्यभाव को छोड़कर नि:शल्य भाव से, आर्त्त-रौद्र ध्यान का वर्जन करके धर्म या शुक्ल ध्यान में, मिथ्यादर्शन आदि परित्याग करके सम्यग्दर्शन को ध्याता है, वह जीव प्रतिक्रमण हैं।17 इसका आशय है कि राग-द्वेष युक्त अध्यवसायों से रहित आत्मा ही प्रतिक्रमण की अधिकारी होती है और उसके द्वारा किया गया प्रतिक्रमण ही यथार्थ प्रतिक्रमण कहलाता है।
आचार्य अमितगति ने योगसार में प्रतिक्रमण की एक नई व्याख्या की है। उनके अनुसार पूर्वकाल में किए गए दुष्कर्मों के प्रदत्त फल को अपना न मानना, प्रतिक्रमण है।18