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________________ 4... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तब यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। 3. अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर शुभ योगों में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। दशवैकालिकचूर्णि के अनुसार समिति-गुप्ति का आचरण करते हुए. अथवा आवश्यक क्रिया करते हुए अतिक्रमण हो जाने पर, अचानक अतिक्रमण होने पर, दूसरे के द्वारा कहे जाने पर अथवा स्वयं के द्वारा अतिक्रमण को याद कर 'मिच्छामि दुक्कडं'- ऐसा उच्चारण करना, प्रतिक्रमण है। इससे दोष शुद्धि होती है। ____ अनुयोगद्वारचूर्णि के अनुसार मूलगुणों और उत्तरगुणों में स्खलना होने पर जब पुन: संवेग की प्राप्ति होती है उस समय मुनि भाव विशुद्धि के कारण प्रमाद की स्मृति करता हुआ आत्म निन्दा और गुरुसाक्षी पूर्वक गर्दा (निन्दा) करता है, वह प्रतिक्रमण है।' दिगम्बराचार्य पूज्यपाद ने इस विषय का निरूपण करते हुए कहा है कि 'मेरा दोष मिथ्या हो'- गुरु के समक्ष इस प्रकार निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रतिक्रमण है। __आचार्य अकलंक, आचार्य वीरसेन, आचार्य अपराजित आदि ने दोष निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहा है जैसे- राजवार्तिक का पाठ है कि कृतदोषों से निवृत्त होना प्रतिक्रमण है। धवलाटीका का पाठांश है कि चौराशी लक्ष गुणों से संयुक्त पंच महाव्रतों में लगे हुए दोषों का शोधन करना, निवर्तन करना, प्रतिक्रमण है।10 विजयोदया टीका में लिखा गया है कि अचेलकत्व आदि दस स्थिर कल्प का परिपालन करते हुए मुनि के द्वारा जिन अतिचारों का सेवन किया जाए उनके निवारणार्थ प्रतिक्रमण करना आठवाँ स्थितिकल्प है।11 ___ मूलाचार आदि कतिपय ग्रन्थों के उल्लेखानुसार कृत दोषों के लिए मिथ्यादुष्कृत देना प्रतिक्रमण है। मूलाचार में कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का मन, वाणी एवं शरीर के द्वारा निन्दा और गर्दा पूर्वक शोधन करना, प्रतिक्रमण है।12 इसका स्पष्टार्थ यह है कि आहार, शरीर आदि द्रव्य के विषय में; वसति, शयन, आसन और गमनआगमन आदि मार्ग रूप क्षेत्र के विषय में; पूर्वाह्न, अपराह्न, दिवस, रात्रि, पक्ष,
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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