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प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण ...3
अध्यवसायों की मलिनता है। इस आत्मा को मुहूर्त मात्र के लिए यह भान हो जाए कि 'मैं प्रमादवश स्वयं को भूल गया हूँ और असत मार्ग का अनुगामी बन चुका हूँ' तो वह पुन: स्वस्थान की ओर लौट सकता है। इस प्रकार स्वयं के मूलस्थान की ओर गमन करने की क्रिया अथवा प्रवृत्ति प्रतिक्रमण कहलाता है। ____ आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र टीका में इसका व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए दर्शाया है कि शुभ योगों में से अशुभ योगों में प्रवृत्त चेतना को पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।
दिगम्बर आचार्यों ने इसका निरुक्त्यर्थ करते हुए बतलाया है कि प्रमाद के द्वारा किये गये दोषों का जिस क्रिया के द्वारा निराकरण किया जाता है वह प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण की विभिन्न परिभाषाएँ
जैन परम्परा के प्रबुद्ध आचार्यों ने प्रतिक्रमण आवश्यक पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी है। यदि उन व्याख्या साहित्य का सम्यक् अवलोकन किया जाए तो किंचिद् महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार उपलब्ध होती हैं____ भाष्यकार संघदासगणि ने प्रतिक्रमण का अर्थ भूतकाल के सावद्य योगों से निवृत्त होना बतलाया है तथा यह निवृत्ति अनुमोदन विरमण रूप होती है।
चूर्णिकार जिनदासगणि के अनुसार सेवित दोषों को पुन: न करने का संकल्प करना, दोष शद्धि के लिए यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करना और गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्त को वहन करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए आवश्यकचूर्णि में तीन महत्त्वपूर्ण प्राचीन श्लोक उद्धृत किये गये हैं, जिनके अनुसार प्रतिक्रमण के निम्न अर्थ होते हैं__ 1. प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभयोग को प्राप्त करने के पश्चात
फिर से शुभयोग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। 2. औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटना प्रतिक्रमण है। जैन सिद्धान्त के अनुसार राग-द्वेष, मोह-ईर्ष्या आदि औदयिक भाव कहलाते हैं और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव कहलाते हैं।
औदयिक भाव को संसार भ्रमण का हेतु और क्षायोपशमिक भाव का मोक्ष प्राप्ति का जनक माना गया है। अस्तु, क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक भाव से