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________________ 2... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना से 'प्रतिक्रमण' शब्द चौथे आवश्यक का तथा छह आवश्यक के समुदाय का भी बोध कराता है। दूसरे अर्थ में इस शब्द की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई है कि आजकल 'आवश्यक' शब्द का प्रयोग न करके सब कोई छहों आवश्यकों के लिए 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग करते हैं। इस तरह व्यवहार में और अर्वाचीन ग्रंथों में 'प्रतिक्रमण' शब्द एक प्रकार से 'आवश्यक' शब्द का पर्याय हो गया है। प्राचीन ग्रन्थों में सामान्य आवश्यक के अर्थ में 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग लगभग कहीं नहीं है। प्रतिक्रमणहेतुगर्भ, प्रतिक्रमणविधि, धर्मसंग्रह आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य ‘आवश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त है और सर्व साधारण भी सामान्य ‘आवश्यक' के अर्थ में प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है- पुन: लौटना, असंयम से संयम में लौटना। 'प्रति' उपसर्ग पूर्वक ‘क्रम' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय जुड़कर प्रतिक्रमण शब्द बना है। प्रति का अर्थ है- पुनः, क्रमण का अर्थ है- लौटना अर्थात पाप कार्यों से पुन: लौटना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण एक प्रशस्त क्रिया है, अत: प्रत्येक स्थिति में पुन: लौटना यह अर्थ युक्ति संगत नहीं होता है, इसलिए यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कौन? किससे? किन उद्देश्यों से पुन: लौटे? इन प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर यह है कि आत्मा को प्रमाद स्थान या पापस्थान से पीछे लौटना है। इस प्रसंग को अधिक स्पष्टता के साथ कहा जाए तो ऐसा है कि अनन्त चतुष्ट्य रूप स्व स्थान से प्रमाद आदि पर स्थान में गयी हुई आत्मा को फिर से मूलस्थान में लौटा लाने की क्रिया करना, प्रतिक्रमण कहलाता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र- ये तीनों आत्मा के स्व स्थान हैं और प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, पर-परिवाद, मायामृषावाद और मिथ्यात्वशल्य- ये अठारह पाप परस्थान हैं। __ संसारी आत्मा प्रमादवश स्वस्थान को छोड़कर परस्थान की ओर अभिमुख होती है। यहाँ 'प्रमाद' शब्द से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय- इन चतुष्क का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पापकर्म की प्रवृत्ति करने में ये सभी सहकारी कारण हैं। मिथ्यात्व का अर्थ- विपरीत श्रद्धान, अविरति का अर्थअसंयम, प्रमाद का अर्थ- ध्येय के प्रति उदासीन-निरपेक्ष और कषाय का अर्थ
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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