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अध्याय-1
प्रतिक्रमण आवश्यक का स्वरूप विश्लेषण
षडावश्यकों में प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है। यह सभी में प्रधान एवं प्रमुख है इसलिए वर्तमान व्यवहार में छहों आवश्यकों की संयुक्त क्रिया को ही प्रतिक्रमण कहा जाता है। दैनिक कर्तव्य रूप इन आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए आम तौर पर सभी परम्पराओं में यही बोला जाता है कि मैं प्रतिक्रमण कर रहा हूँ, प्रतिक्रमण करने जा रहा हूँ, आज संवत्सरी का प्रतिक्रमण है। इसकी जगह आवश्यक कर रहा हूँ या आवश्यक करना चाहिए, इन शब्दों का प्रयोग नहीवत ही किया जाता है।
वस्तुतः प्रतिक्रमण आवश्यक का एक स्वतन्त्र अंग है। आत्म संशद्धि एवं दोष परिष्कार का जीवन्त साधन है, निर्मल विचारों को संपुष्ट करने का परम अमृत है तथा अपनी आत्मा को परखने एवं निरखने का अमोघ उपाय है। __शास्त्रीय दृष्टिकोण से संयम धर्म की साधना करते हुए प्रमादवश किसी तरह की स्खलना हो जाए या व्रत आदि का अतिक्रमण हो जाए, तो उसे विरूद्ध-मिथ्या समझकर अन्तर्भावना से उसकी निन्दा करना, उस अकृत्य के लिए पश्चात्ताप करना और भविष्य में उन दोषों से बचने के लिए जागरूक रहना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का सम्बन्ध तीनों कालों से है। भूतकाल में किए गए सावध योग (हिंसाजन्य कार्य) की मन, वचन, काया से गर्दा करना भूतकाल का प्रतिक्रमण है, वर्तमान में संभावित सावध योग का मन-वचन-काया से संवर करना अर्थात सामायिक की आराधना करना वर्तमान का प्रतिक्रमण है तथा अनागत काल के सावध योग का परित्याग करने के लिए प्रत्याख्यान करना भावी प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ विन्यास
प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण' ऐसी है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ ‘पीछे फिरना' इतना ही होता है, परन्तु रूढ़ि