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xivi... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना उससे च्युत भले ही हो जाए परन्तु उसे अन्य काल में कर नहीं सकते। शेष आवश्यकों में परगुणों का चिंतन किया जाता है, वहीं इसमें स्व दोषों का परिशीलन एवं परिशोधन कर स्वयं को शुद्ध बनाया जाता है। कई लोगों की मान्यता है कि प्रतिक्रमण की क्रिया पापों का क्षय कर पुनः पाप कार्य करने की छुट प्रदान करती है किन्तु यह भ्रमित मान्यता है। क्योंकि किसी भी गलत कार्य को पुनः पुनः करते हुए उसकी माफी मांगते जाएं तो यह मात्र एक थोथी परम्परा का रटन होगा, जबकि प्रतिक्रमण कुसंस्कारों को विगलित करने का अचूक उपाय है।
जैन धर्म में स्वकृत पाप आलोचना की यह क्रिया अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इतर धर्मों में भी धर्म गुरुओं के समक्ष पाप प्रकट करने का प्रावधान है जैसे- ईसाईयों में पादरी (फादर) के समक्ष कृत दोषों को गुप्त रहकर प्रकट किया जाता है। बौद्ध परम्परा में भी स्वकृत अपराधों का प्रायश्चित्त धर्म गुरुओं से ग्रहण किया जाता है परन्तु जो सूक्ष्मता एवं नियमितता पाप आलोचन के लिए जैन धर्म में है वह अन्यत्र नहीं है।
इस शोध प्रबन्ध में प्रतिक्रमण सम्बन्धी कई शंकाओं का समाधान एवं विविध जन धारणाओं तथा प्रश्नों का निवारण करने का प्रयास करते हुए जैन धर्म में प्रचलित समस्त परम्पराओं की प्रतिक्रमण विधियाँ एवं उनका तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। साथ ही वैदिक एवं बौद्ध परम्पराओं से भी उसका तुलना पक्ष उजागर करते हुए इसे बहुजन उपयोगी बनाने का प्रयास किया है। इस तरह यह शोध खण्ड निम्न सात अध्यायों में विभक्त है।
प्रथम अध्याय में प्रतिक्रमण अर्थ का विश्लेषण करते हुए उसकी अनेक परिभाषाएँ बताई गई है। इसी के साथ प्रतिक्रमण कब करना चाहिए? इस सन्दर्भ में प्रतिक्रमण के दो, तीन यावत आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है।
. द्वितीय अध्याय में प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों, प्रतिक्रमण किसका, प्रतिक्रमण किसलिए? आदि क्रियाविधि के गूढ़ रहस्यों का अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है।
तृतीय अध्याय प्रतिक्रमण करने वाले आराधकों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इसमें प्रतिक्रमण उपयोगी सभी सूत्रों का भावार्थ एवं उसकी प्राचीनता बताते हुए कौनसा सूत्र किस मुद्रा में और उन मुद्राओं का बाह्य एवं आभ्यन्तर प्रभाव क्या है? ऐसे रुचिकर विषयों का विवेचन किया गया है।