________________
अनुभूति के बोल
प्रतिक्रमण की क्रिया एक महायोग है। योग अर्थात मोक्ष के साथ आत्मा को जोड़ने वाली साधना। मोक्ष प्राप्ति रूप योग में बाह्य और आभ्यन्तर तप का समावेश होता है। उसमें आभ्यन्तर तप उत्कृष्ट है और आभ्यन्तर तप में भी प्रायश्चित्त का प्रथम स्थान है। प्रतिक्रमण में पापों का प्रायश्चित्त होता है इसलिए योगों में उसका उच्च स्थान होने से प्रतिक्रमण को महायोग कह सकते हैं।
दूसरा कारण यह है कि प्रतिक्रमण में विनय, ध्यान, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय भी आते हैं इससे भी यह महायोग है। कुछ जन समझते हैं कि प्रतिक्रमण तो व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं के लिए ही है क्योंकि उनके द्वारा गृहीत व्रत में अतिचार लगे हों तो उसकी शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है। परन्तु यह समझ अधूरी है। शास्त्र में ‘पडिसिद्धाणं करणे...' इस गाथा में चार हेतुओं से प्रतिक्रमण करने का निर्देश है। तदनुसार प्रतिक्रमण क्रिया अव्रती के लिए भी आवश्यक है। ___संसारी आत्मा में अनेकानेक मलिन वृत्तियाँ हैं। उन दुष्ट भावों को समाप्त करने के लिए उनके प्रतिरोधक तत्त्व चाहिए। एक प्रतिकार से सभी दोष नष्ट नहीं हो सकते। जैसे आँखों में रोशनी की कमी, कान में बहरापन, स्वर का भंग, पैर दर्द आदि अनेक रोगों को दूर करने के लिए उतनी ही दवाईयों की आवश्यकता होती है वैसे ही आत्मा के अनेक जाति के रोगों का निवारण करने के लिए अनेक उपाय खोजने होंगे। प्रतिक्रमण की क्रिया में तथाविध अनेक उपायों का समावेश है इसीलिए प्रतिक्रमण को महायोग कहा है।
यद्यपि प्रतिक्रमण षडावश्यक में समाविष्ट है फिर भी उन छहों में प्रतिक्रमण का महत्त्व कुछ विशिष्ट है। षडावश्यक की शेष क्रियाएँ पृथक्-पृथक् अन्य समय में भी की जा सकती है जैसे- सामायिक की साधना व्यक्ति जब चाहे तब कर सकता है। वंदन क्रिया, चतुर्विंशतिस्तव आदि भी अन्य-अन्य समय में और अनेक बार स्वेच्छा से की जा सकती है किन्तु प्रतिक्रमण की क्रिया का समय निर्धारित है। परिस्थितिवश या अपवाद रूप कभी कोई साधक