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प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना ... xlvii
चतुर्थ अध्याय प्रतिक्रमण अधिकारियों के लिए और भी मूल्यवान है, क्योंकि इसमें समस्त परम्पराओं में प्रचलित प्रतिक्रमण विधियों का मौलिक स्वरूप दर्शाया गया है जिससे आराधक अपनी सामाचारी के प्रति भ्रमित न हों। इसमें वर्तमान प्रचलित प्रतिक्रमण विधियों की पूर्ववर्ती ग्रन्थों से तुलना भी की गई है, जिससे प्रतिक्रमण का ऐतिहासिक स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
पंचम अध्याय में प्रतिक्रमण की प्रत्येक विधि के हेतु बताए गए हैं तथा आधुनिक सन्दर्भों में उभरते तत्सम्बन्धी जिज्ञासाओं का सटीक समाधान किया गया है। इस अध्याय के माध्यम से प्रतिक्रमण की हर क्रिया के रहस्यों एवं उसकी वैज्ञानिक क्रमिकता को भलीभाँति समझा जा सकता है ।
षष्ठम अध्याय प्रतिक्रमण शुद्धि पर अवलम्बित है। प्रतिक्रमण क्रिया निर्दोष रीतिपूर्वक कैसे की जा सकती है ? इस सम्बन्ध में कई नियम-उपनियमों का दिग्दर्शन करवाते हुए प्रतिक्रमण का समय, वन्दना के आवश्यक, सत्रह प्रमार्जना आदि अपेक्षित विषयों का निरूपण किया गया है। इसमें प्रतिक्रमण शुद्धि की दृष्टि से छींक दोष, बिल्ली दोष, सचित्त - अचित्त रज दोष आदि की निवारण विधियाँ भी कही गई है।
सप्तम अध्याय का प्रस्तुतिकरण उपसंहार के रूप में किया गया है। इस प्रकार प्रतिक्रमण की महत्ता, श्रेष्ठता एवं उपादेयता को प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आज के संत्रस्त और आतंकमय युग में प्रतिक्रमण हिंसा से अहिंसा, भौतिकवाद से अध्यात्मवाद, भोगवाद से योगवाद और संतप्त से शान्ति की ओर बढ़ने का श्रेष्ठतम मार्ग है। wrong side पर चलते जीवों के लिए Path Diversion है । आधुनिकता के चक्रव्यूह को भेदन करने का रहस्य है और मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में प्रवेश पाने के लिए Turning point of life है । यह कृति अपने उद्देश्य में सफल बने ऐसी मंगल कामना करते हुए इस शोध आलेखन में हुई त्रुटियों एवं आगमकारों के विरुद्ध हुई प्ररूपणाओं के लिए अंत:करण पूर्वक मिच्छामि दुक्कडं की याचना करती हूँ।