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________________ प्रतिक्रमण क्रिया में अपेक्षित सावधानियाँ एवं आपवादिक विधियाँ ...223 उग्घाडा पोरिसिं जा, राइअमावस्सयस्स चुन्नीए । व्यवहाराभिप्पाया, भणंति जाव पुरिमड्ढे ।। (हेतुगर्भ पृ. 3) स्पष्ट है कि आवश्यक चूर्णि के अभिप्राय से रात्रिक प्रतिक्रमण उग्घाड़ा पोरिसी अर्थात सूत्र पौरुषी पूर्ण हो वहाँ तक और व्यवहारसूत्र के अनुसार दिन के मध्याह्न तक किया जा सकता है। • विधिमार्गप्रपा (पृ. 24) के अनुसार वर्तमान का जो महीना हो उससे तीसरे महीने के नाम का नक्षत्र जब मस्तक पर आये उस समय रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। जैसे कि वर्तमान में श्रावण मास चल रहा हो तो उससे तीसरा महीना आश्विन (आसोज) आता है। इसका तात्पर्य है कि जब आकाश के मध्य अश्विनी नाम का नक्षत्र आये तब रात्रिक प्रतिक्रमण का समय जानना चाहिए। इसका मूल पाठ निम्न है जो वट्टमाण मासो, तस्स य मासस्स होइ जो तइओ। तन्नामय नक्खत्ते, सीसत्थे गोस पडिकमणं ।। • पाक्षिक प्रतिक्रमण पक्ष के अन्त में चतुर्दशी के दिन किया जाता है। आगम युग में अमावस या पूनम को पक्खी प्रतिक्रमण होता था, जिस समय से संवत्सरी प्रतिक्रमण की तिथि पंचमी से चौथ हुई उस समय से पक्खी प्रतिक्रमण भी चतुर्दशी के दिन करते हैं। लेकिन स्थानकवासी, तेरापंथी, पायच्छंदगच्छ वाले आज भी पंचमी को संवत्सरी तथा पूर्णिमा-अमावस्या को पक्खी करते हैं। प्रतिक्रमण योग्य स्थान - अपने नगर में गुरु महाराज का योग हो तो प्रतिक्रमण उनके साथ, अन्यथा पौषधशाला या अपने घर पर करना चाहिए। आवश्यकचूर्णि में कहा है कि "असइ-साह-चेइयाणं पोसह सालाए वा सगिहे वा सामाइयं वा आवस्सयं वा करेई” अर्थात साधु और चैत्य का योग न हो तो श्रावक पौषधशाला में अथवा अपने घर पर सामायिक और आवश्यक (प्रतिक्रमण) करें। चिरन्तनाचार्यकृत प्रतिक्रमण विधि की गाथा में भी यही कहा गया है कि पंचविहायार विसुद्धि, हेउमिह साहु सावगो वा वि। पडिक्कमणं सह गुरुणा, गुरु विरहे कुणइ इक्को वि ।। साधु और श्रावक पाँच आचार की विशुद्धि के लिए गुरु के साथ
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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