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222... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना प्रतिक्रमण का उत्कृष्ट और आपवादिक काल
• दैवसिक प्रतिक्रमण दिन के अन्तिम भाग में अर्थात सूर्यास्त के समय में करना चाहिए। इसका निश्चित काल बताते हुए प्रतिक्रमण हेतु गर्भ (पृ. 2) में शास्त्र वचन को उद्धृत कर कहा गया है कि
अद्ध निवुड्ढे 'बिम्बे, सुत्तं कड्ढंति गीयत्था ।
इअ वयण-पमाणेणं, देवसियावस्सए कालो ।। सूर्य बिम्ब का आधा भाग अस्त हो उस समय प्रतिक्रमण सूत्र बोलना चाहिए अर्थात अर्ध सूर्यास्त के समय वंदित्तुसूत्र आ जाए उस समय का ध्यान रखते हुए प्रतिक्रमण प्रारम्भ करना चाहिए। यह दैवसिक प्रतिक्रमण का उत्सर्ग काल है।
• श्राद्धविधि द्वितीय प्रकरण में भी ऐसा ही कहा गया है। पुष्टि के लिए मूल पाठ इस प्रकार है
अपवादस्तु दैवसिकं दिवस तृतीय प्रहरादन्वर्द्धरात्रं यावत् । योगशास्त्रवृत्तौ तु मध्याह्नादारभ्यार्द्धरात्रिं यावदित्युक्तम् ।
रात्रिकमर्द्धरात्रादारभ्य मध्याह्नयावत् ।। • भावदेवसूरिकृत यतिदिनचर्या (पृ. 65) में दैवसिक प्रतिक्रमण का प्रारम्भिक एवं समाप्ति काल दोनों का उल्लेख किया गया है। तदनुसार प्रतिक्रमण उस समय का ध्यान रखते हुए शुरू करना चाहिए कि जब वंदित्तु सूत्र बोल रहे हो तब सूर्य आधा डूबा हुआ और आधा प्रकट हो तथा प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर आकाश में दो या तीन तारे दिखाई देते हों, ऐसे समय की तुलना करके दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए।
• अपवादतः दैवसिक प्रतिक्रमण दिन के तीसरे प्रहर से लेकर मध्य रात्रि होने से पूर्व तक हो सकता है। योगशास्त्रवृत्ति के अनुसार मध्याह्न से अर्धरात्रि पर्यन्त हो सकता है।
. दैवसिक प्रतिक्रमण के समान रात्रिक प्रतिक्रमण भी उस समय शुरू करना चाहिए कि वंदित्तु सूत्र बोलने के वक्त सूर्योदय हो जाये। यह रात्रिक प्रतिक्रमण का उत्सर्ग काल है।
• अपवादत: आवश्यक चूर्णि के अनुसार रात्रिक प्रतिक्रमण मध्य रात्रि से उग्घाड़ा पौरुषी तक अर्थात दिन का प्रथम प्रहर पूर्ण होने तक तथा व्यवहारसूत्र के मतानुसार मध्याह्न तक कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में मूलपाठ यह है