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________________ प्रतिक्रमण क्रिया में अपेक्षित सावधानियाँ एवं आपवादिक विधियाँ... 219 6. आन्तरिक उल्लास- - पूर्वक किया गया प्रतिक्रमण कर्म के कठिन बन्धनों को शीघ्र तोड़ डालता है यह लक्ष्य में रखना चाहिए । 7. प्रतिक्रमण में लघु शंका के लिए जाना हो तो किसी को आड़ न पड़े उस तरह बाहर निकलना चाहिए। यदि अकाल का समय हो तो सिर पर गरम शाल ओढ़नी चाहिए तथा शंका दूर करने के पश्चात शाल को हल्के से टांग देनी चाहिए। वर्तमान में कुछ जन बिछाया आसन भी ओढ़ते हैं जो नियम विरुद्ध है, क्योंकि आसन पर तुरन्त बैठने से तमस्काय (आकाश में से बरसने वाले अपकाय के जीव) आदि जीवों की विराधना का दोष लगता है कारण कि अपने शरीर के स्पर्श से उन जीवों का हनन होता है। है। अतः सामायिक या पौषध आदि में ओछाया टालने हेतु ऊनी शाल का ही उपयोग करना चाहिए, जिससे पूरा शरीर ढका जा सके। खुली जगह हो तो पेशाब प्याले में करके मिट्टी में थोड़ा-थोड़ा करते हुए डालना चाहिए। 8. प्रतिक्रमण करते समय बिजली आदि का प्रकाश शरीर पर नहीं पड़े, ध्यान रखना चाहिए। 9. सामायिक लेने के पश्चात चरवला के बिना नहीं उठना चाहिए। 10. प्रतिक्रमण जप या ध्यान का प्रकार नहीं है, यह तो पाप विमोचन की एक अपूर्व और पवित्र क्रिया है । यह क्रिया प्रातः एवं सायंकाल दो बार की जाती है। सामान्यतः इस क्रिया का काल 40 से 60 मिनट का होता है परन्तु हर पन्द्रह दिन में एक दिन, हर चार महीने में एक दिन तथा बारह महीने में एक दिन - इस प्रकार वर्ष में अट्ठाईस दिन ऐसे होते हैं जब संध्याकाल की क्रिया काफी लम्बी होती है, जो दो से तीन घंटे तक चलती है। यह क्रिया उपाश्रय में अथवा घर में कहीं भी हो सकती है। इस क्रिया को मन्दिर या देरासर में नहीं किया जाता। 11. रात्रिक प्रतिक्रमण मंद स्वर में करना चाहिए, क्योंकि ऊँचे स्वर में बोलने से छिपकली आदि हिंसक जीव उठ जाए तो हिंसा करने में प्रवृत्त होते हैं। मिथ्यात्वी अथवा नास्तिक लोग पड़ोस में रहते हों तो वे पापाचरण में प्रवृत्ति करेंगे। इसलिए इन दोषों से बचने - बचाने के लिए मंद स्वर में प्रतिक्रमण करने का उपयोग रखना चाहिए।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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